In this chapter, we provide UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi रस, Which will very helpful for every student in their exams. Students can download the latest UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi रस pdf, free UP Board Solutions Class 12 Samanya Hindi रस book pdf download. Now you will get step by step solution to each question. Up board solutions Class 12 Hindi पीडीऍफ़
UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi रस
प्रश्न 1
रस क्या है ? उसके अंगों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
श्रव्य काव्य पढ़ने या दृश्य काव्य देखने से पाठक, श्रोता या दर्शक को जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, उसे ‘रस’ कहते हैं। विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी (या संचारी) भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति (अभिव्यक्ति) होती है। मनुष्य के हृदय में रति, शोक आदि कुछ भाव हर समय सुप्तावस्था में रहते हैं, जिन्हें स्थायी भाव कहते हैं। ये स्थायी भाव अनुकूल परिस्थिति या दृश्य उपस्थित होने पर जाग्रत हो जाते हैं। सफल कवि द्वारा वर्णित वृत्तान्त को पढ़ या सुनकर काव्य के पाठक या श्रोता को एक ऐसे अलौकिक आनन्द का अनुभव होता है कि वह स्वयं को भूलकर आनन्दमय हो जाता है। यही आनन्द ‘काव्यशास्त्र’ में रस कहलाता है।
रस के अंग
रस के प्रमुख चार अवयव (अंग) हैं–
- स्थायी भाव,
- विभाव,
- अनुभाव तथा
- संचारी भाव। इन अंगों का परिचय निम्नलिखित है-
(1) स्थायी भाव
रति (प्रेम), जुगुप्सा (घृणा), अमर्ष (क्रोध) आदि भाव मनुष्य के मन में स्वाभाविक रूप से सदा विद्यमान रहते हैं, इन्हें स्थायी भाव कहते हैं। ये नौ हैं और इसी कारण इनसे सम्बन्धित रस भी नौ ही हैं-
रति नामक स्थायी भाव के प्राचीन ग्रन्थों में तीन भेद किये गये हैं–(i) कान्ताविषयक रति (नर-नारी का पारस्परिक प्रेम), (ii) सन्ततिविषयक रति और (iii) देवताविषयक रति। अपत्य (सन्तान) विषयक रति की रस-रूप में परिणति करके सूर ने दिखा दी; अतः अब वात्सल्य रस को एक स्वतन्त्र रस की मान्यता प्राप्त हो गयी है। इसी प्रकार गोस्वामी तुलसीदास जी के काव्य-कौशल के फलस्वरूप देवताविषयक रति की भक्ति रस में परिणति होने से भक्ति रस भी एक स्वतन्त्र रस माना जाने लगा है; अतः अब रसों की संख्या ग्यारह हो गयी है–उपर्युक्त नौ तथा
(10) वात्सल्य रस-वत्सलता (स्थायी भाव) तथा
(11) भक्ति रस-देवताविषयक रति (स्थायी भाव)।
(2) विभाव।
स्थायी भाव सामान्यतः सुषुप्तावस्था में रहते हैं, इन्हें जाग्रत एवं उद्दीप्त करने वाले कारणों को विभाव कहते हैं। विभाव निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं
(1) आलम्बन विभाव-जो स्थायी भाव को उद्बुद्ध (जाग्रत) करे वह आलम्बन विभाव कहलाता है। इसके निम्नलिखित दो अंग होते हैं
- आश्रय-जिस व्यक्ति के हृदय में स्थायी भाव जाग्रत होता है, उसे आश्रय कहते हैं।
- विषय-जिस वस्तु या व्यक्ति के कारण आश्रय के हृदय में रति आदि स्थायी भाव जाग्रत होते हैं, उसे विषय कहते हैं।
(2) उद्दीपन विभाव-जो जाग्रत हुए स्थायी भाव को उद्दीप्त करे अर्थात् अधिक प्रबल बनाये, वह उद्दीपन विभाव कहलाता है।
उदाहरणार्थ, श्रृंगार रस में प्राय: नायक-नायिका एक-दूसरे के लिए आलम्बन हैं और वन, उपवन, चाँदनी, पुष्प आदि प्राकृतिक दृश्य या आलम्बन के हाव-भाव उद्दीपन विभाव हैं। भिन्न-भिन्न रसों में आलम्बन और उद्दीपन भी बदलते रहते हैं; जैसे-युद्धयात्रा पर जाते हुए वीर के लिए उसका शत्रु ही आलम्बन है; क्योंकि उसके कारण ही वीर के मन में उत्साह नामक स्थायी भाव जगता है और उसके आस-पास बजते बाजे, वीरों की हुंकार आदि उद्दीपने हैं; क्योंकि इनसे उसका उत्साह और बढ़ता है।
(3) अनुभाव
आलम्बन तथा उद्दीपन के द्वारा आश्रय के हृदय में स्थायी भाव के जाग्रत तथा उद्दीप्त होने पर आश्रय में जो चेष्टाएँ होती हैं, उन्हें अनुभाव कहते हैं। अनुभाव दो प्रकार के होते हैं-(i) सात्त्विक और (ii) कायिक।
- सात्त्विक अनुभाव-जो शारीरिक विकार बिना आश्रय के प्रयास के स्वत: ही उत्पन्न होते हैं, वे सात्त्विक अनुभाव कहलाते हैं। ये आठ होते हैं—(1) स्तम्भ, (2) स्वेद, (3) रोमांच, (4) स्वरभंग, (5) कम्प, (6) वैवर्य, (7) अश्रु एवं (8) प्रलय (सुध-बुध खोना)।
- कायिक अनुभाव-इनका सम्बन्ध शरीर से होता है। जो चेष्टाएँ आश्रय अपनी इच्छानुसार जान-बूझकर प्रयत्नपूर्वक करता है, उन्हें कायिक अनुभाव कहते हैं; जैसे-क्रोध में कठोर शब्द कहना, उत्साह में पैर पटकना, कूदना आदि।
(4) संचारी (या व्यभिचारी) भाव
जो भाव स्थायी भावों से उद्बुद्ध (जाग्रत) होने पर इन्हें पुष्ट करने में सहायता पहुँचाने तथा इनके अनुकूल कार्य करने के लिए उत्पन्न होते हैं, उन्हें संचारी (या व्यभिचारी) भाव कहते हैं; क्योंकि ये अपना काम करके तुरन्त स्थायी भावों में ही विलीन हो जाते हैं (संचरण करते रहने के कारण इन्हें संचारी और स्थिर न रहने के कारण व्यभिचारी कहते हैं)।
प्रमुख संचारी भावों की संख्या तैंतीस मानी गयी है-
(संचारी भावों की संख्या असंख्य भी हो सकती है। ये स्थायी भावों को गति प्रदान करते हैं तथा उसे । व्यापक रूप देते हैं। स्थायी भावों को पुष्ट करके ये स्वयं समाप्त हो जाते हैं।
प्रश्न 2
रस कितने होते हैं ? किसी एक रस का लक्षण उदाहरणसहित लिखिए।
उत्तर
शास्त्रीय रूप से रस निम्नलिखित नौ प्रकार के होते हैं
(1) श्रृंगार (संयोग व विप्रलम्भ) रस, (2) हास्य रस, (3) करुण रस, (4) वीर रस, (5) रौद्र रस, (6) भयानक रस, (7) वीभत्स रस, (8) अद्भुत रस तथा (9) शान्त रस। कुछ विद्वान् ‘वात्सल्य रस’ और ‘भक्ति रस’ को भी उपरि-निर्दिष्ट नव रसों की श्रृंखला में ही मानते हैं।
[विशेष—माध्यमिक शिक्षा परिषद्, उ० प्र० द्वारा निर्धारित नवीनतम पाठ्यक्रम में आगे दिये जा रहे पाँच रस ही निर्धारित हैं।
(1) श्रृंगार रस [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
(क) परिभाषा-जब विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से ‘रति’ नामक स्थायी भाव रस रूप में परिणत होता है तो उसे शृंगार रस कहते हैं।
(ख) अवयव
स्थायी भाव--रति।
आलम्बन (विभाव)-नायक या नायिका।
उद्दीपन ( विभाव)—सुन्दर प्राकृतिक दृश्य तथा नायक-नायिका की वेशभूषा, विविध आंगिक चेष्टाएँ (हाव-भाव) आदि।
संचारी ( भाव)--पूर्वोक्त तैतीस में से अधिकांश।
अनुभाव-आश्रय की प्रेमपूर्ण वार्ता, अवलोकन, स्पर्श, आलिंगन, चुम्बन, कटाक्ष, अश्रु, वैवयं आदि।
(ग) श्रृंगार रस के भेद-श्रृंगार के दो भेद हैं–संयोग और विप्रलम्भ (वियोग)। संयोग श्रृंगार। [2013, 15, 16, 18]
संयोगकाल में नायक और नायिका की पारस्परिक रति को संयोग श्रृंगार कहते हैं। संयोग से आशय हे-सुख को प्राप्त करना।
उदाहरण 1-
राम कौ रूप निहारति जानकी, कंगन के नग की परछाहीं ।
यातें सबे सुधि भूलि गयी, कर टेकि रहीं पल टारति नाहीं ॥ ( तुलसीदास)
स्पष्टीकरण-यहाँ सीताजी अपने कंगन के नग में पड़ रहे राम के प्रतिबिम्ब को निहारते हुए अपनी सुध-बुध भूल गयीं और हाथ को टेके हुए जड़वत् हो गयीं। इसमें जानकी आश्रय और राम आलम्बन हैं। राम का नग में पड़ने वाला प्रतिबिम्ब उद्दीपन है। रूप को निहारना, हाथ टेकना अनुभाव और हर्ष तथा जड़ता संचारी भाव हैं।
इस प्रकार विभाव, संचारी भाव और अनुभावों से पुष्ट रति नामक स्थायी भाव संयोग श्रृंगार की अवस्था को प्राप्त हुआ है।
उदाहरण 2-
कौन हो तुम वसन्त के दूत
विरस पतझड़ में अति सुकुमार ;
घन तिमिर में चपला की रेख
तपन में शीतल मन्द बयार ।( काव्यांजलि : श्रद्धा-मनु)
स्पष्टीकरण-इस प्रकरण में रति स्थायी भाव है। आलम्बन विभाव है-श्रद्धा (विषय) और मनु (आश्रय)। उद्दीपन विभाव है-एकान्त प्रदेश, श्रद्धा की कमनीयता, शीतल-मन्द पवन। हृदय में शान्ति का मिलना अनुभाव है। आश्रय मनु के हर्ष, उत्सुकता आदि भाव संचारी भाव हैं। इस प्रकार अनुभावविभावादि से पुष्ट रति नामक स्थायी भाव संयोग श्रृंगार रस की दशा को प्राप्त हुआ है। वियोग श्रृंगार [2010, 14, 15, 16, 17]
प्रेम में अनुरक्त नायक और नायिका के परस्पर मिलन का अभाव वियोग श्रृंगार कहलाता है।
उदाहरण 1-
हे खग-मृग, हे मधुकर त्रेनी,
तुम देखी सीता मृग नैनी ? (तुलसीदास)
स्पष्टीकरण-यहाँ श्रीराम आश्रय हैं और सीताजी आलम्बन, सूनी कुटिया और वन का सूनापन उद्दीपन हैं। सीताजी की स्मृति, आवेग, विषाद, शंका, दैन्य, मोह आदि संचारी भाव हैं। इस प्रकार विभाव-अनुभाव-संचारीभाव के संयोग से रति नामक स्थायी भाव पुष्ट होकर विप्रलम्भ श्रृंगार की रसावस्था को प्राप्त हुआ है।
उदाहरण 2-
मेरे प्यारे नव जलद से कंज से नेत्र वाले
जाके आये न मधुबन से औ न भेजा सँदेशा।
मैं रो-रो के प्रिय-विरह से बावली हो रही हूँ ।
जा के मेरी सब दुःख-कथा श्याम को तू सुना दे ॥ (काव्यांजलि : पवन-दूतिका)
स्पष्टीकरण-इस छन्द में विरहिणी राधा की विरह-दशा का वर्णन किया गया है। ‘रति’ स्थायी भाव है। आलम्बन विभाव हैं-राधा (आश्रय) और श्रीकृष्ण (विषय)। उद्दीपन विभाव हैं-मेघ जैसी शोभा और कमल जैसे नेत्रों का स्मरण। श्रीकृष्ण के विरह में रुदन अनुभाव है। स्मृति, आवेग, उन्माद आदि संचारियों से पुष्ट श्रीकृष्ण से मिलन के अभाव में यहाँ वियोग श्रृंगार रस का परिपाक हुआ है।
(2) करुण रस [2009, 10,11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
(क) परिभाषा-किसी प्रिय वस्तु या वस्तु के विनाश से या अनिष्ट की प्राप्ति से करुण रस की निष्पत्ति होती है।
(ख) अवयव-
स्थायी भाव-शोक।
आलम्बन (विभाव)–विनष्ट वस्तु या व्यक्ति।
उद्दीपन (विभाव)–इष्ट के गुण तथा उनसे सम्बन्धित वस्तुएँ।।
अनुभाव–रुदन, प्रलाप, मूच्र्छा, छाती पीटना, नि:श्वास, उन्माद आदि।
संचारी भाव-स्मृति, मोह, विषाद , जड़ता, ग्लानि, निर्वेद आदि।
उदाहरण 1-
जो भूरि भाग्य भरी विदित थी निरुपमेय सुहागिनी।
हे हृदयवल्लभ ! हूँ वही अब मैं महा हतभागिनी ॥
जो साथिनी होकर तुम्हारी थी अतीव सनाथिनी।
है अब उसी मुझ-सी जगत् में और कौन अनाथिनी ॥ ( जयद्रथ-वध)
स्पष्टीकरण-अभिमन्यु की मृत्यु पर उत्तरा के इस विलाप में उत्तरा-आश्रय और अभिमन्यु की मृत्यु-आलम्बन है, पति के वीरत्व आदि गुणों का स्मरण-उद्दीपन है। अपने विगत सौभाग्य की स्मृति एवं दैन्य-संचारी भाव तथा (उत्तरा का) क्रन्दन–अनुभाव है। इनसे पुष्ट हुआ शोक नामक स्थायी भाव करुण-रसावस्था को प्राप्त हुआ है।
उदाहरण 2-
क्यों छलक रहा दुःख मेरा
ऊषा की मृदु पलकों में
हाँ! उलझ रहा सुख मेरा
सन्ध्या की घन अलकों में । (काव्यांजलि : आँसू )
स्पष्टीकरण-प्रस्तुत पद में कवि के अपनी प्रेयसी के विरह में रुदन का वर्णन किया गया है। इसमें कवि के हृदय का ‘शोक’ स्थायी भाव है। आलम्बन विभाव हैं-प्रेमी, यहाँ पर कवि (आश्रय) तथा प्रियतमा (विषय)। उद्दीपन विभाव हैं-अन्धकाररूपी केश-पाश तथा सन्ध्या। कवि के हृदय से नि:सृत उद्गार अनुभाव हैं। अश्रुरूपी प्रात:कालीन ओस की बूंदें संचारी भाव हैं। इन सबसे पुष्ट शोक नामक स्थायी भाव करुण रस की दशा को प्राप्त हुआ है।
वियोग श्रृंगार तथा करुण रस में अन्तर–वियोग श्रृंगार तथा करुण रस में मुख्य अन्तर प्रियजन के वियोग का होता है। वियोग श्रृंगार में बिछुड़े हुए प्रियजन से पुनः मिलन की आशा बनी रहती है; परन्तु करुण रस में इस प्रकार के मिलन की कोई सम्भावना नहीं होती।
(3) हास्य रस [2009, 10, 11, 12, 14, 15, 16, 17, 18]
(क) परिभाषा–जब किसी वस्तु या व्यक्ति के विकृत आकार, वेशभूषा, वाणी, चेष्टा आदि से व्यक्ति को बरबस हँसी आ जाए तो वहाँ हास्य रस है।।
(ख) अवयव
स्थायी भाव–हास।
आलम्बन (विभाव)—विचित्र-विकृत चेष्टाएँ, आकार, वेशभूषा।
उद्दीपन (विभाव)-आलम्बन की अनोखी बातचीत, आकृति।
अनुभाव-आश्रय की मुस्कान, अट्टहास।।
संचारी भाव-हर्ष, चपलता, उत्सुकता आदि।
उदाहरण 1-
नाना वाहन नाना वेषा। बिहँसे सिव समाज निज देखा ॥
कोउ मुख-हीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद-कर कोउ बहु पद-बाहू॥ (तुलसीदास)
स्पष्टीकरण-इस उदाहरण में स्थायी भाव हास के आलम्बन–शिव समाज, आश्रय-शिव, उद्दीपन-विचित्र वेशभूषा, अनुभाव—शिवजी का हँसना तथा संचारी भाव-रोमांच, हर्ष, चापल्य आदि। इनसे पुष्ट हुआ हास नामक स्थायी भाव हास्य-रसावस्था को प्राप्त हुआ है।
उदाहरण 2-
बिंध्य के वासी उदासी तपोब्रतधारी महा बिनु नारि दुखारे।
गौतमतीय तरी तुलसी, सो कथा सुनि भे मुनिबृन्द सुखारे॥
खैहैं सिला सब चंद्रमुखी परसे पदमंजुल-कंज तिहारे ।
कीन्हीं भली रघुनायकजू करुना करि कानन को पगु धारे॥ (हिन्दी : वन पथ पर)
[विशेष—पाठ्यक्रम में संकलित अंश में हास्य रस का उदाहरण दृष्टिगत नहीं होता। अत: 10वीं की पाठ्य-पुस्तक से उदाहरण दिया जा रहा है।]
स्पष्टीकरण—इस छन्द में विन्ध्याचल के तपस्वियों की मनोदशा का वर्णन किया गया है। यहाँ ‘हास’ स्थायी भाव है। आलम्बन विभाव हैं–विन्ध्य के उदास तपस्वी (आश्रय) और राम (विषय)। उद्दीपन विभाव हैं—गौतम की स्त्री का उद्धार। मुनियों का कथा आदि सुनना अनुभाव हैं। हर्ष, उत्सुकता आदि संचारी भावों से पुष्ट प्रस्तुत छन्द में हास्य रस का सुन्दर परिपाक हुआ है।
(4) वीर रस [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
(क) परिभाषा-शत्रु की उन्नति, दीनों पर अत्याचार या धर्म की दुर्गति को मिटाने जैसे किसी विकट या दुष्कर कार्य को करने का जो उत्साह मन में उमड़ता है, वही वीर रस का स्थायी भाव है, जिसकी पुष्टि होने पर वीर रस की सिद्धि होती है।
(ख) अवयव
स्थायी भाव-उत्साह।
आलम्बन (विभाव)—अत्याचारी शत्रु।।
उद्दीपन (विभाव)-शत्रु का अहंकार, रणवाद्य, यश की इच्छा आदि।
अनुभाव-गर्वपूर्ण उक्ति, प्रहार करना, रोमांच आदि।
संचारी भाव-आवेग, उग्रता, गर्व, औत्सुक्य, चपलता आदि।
उदाहरण 1-
मैं सत्य कहता हूँ सखे, सुकुमार मत जानो मुझे।
यमराज से भी युद्ध में, प्रस्तुत सदा मानो मुझे ॥
है और की तो बात क्या, गर्व मैं करता नहीं ।
मामा तथा निज तात से भी, युद्ध में डरता नहीं ॥( मैथिलीशरण गुप्त)
स्पष्टीकरण-अभिमन्यु का यह कथन अपने सारथी के प्रति है। इसमें कौरव-आलम्बन, अभिमन्यु-आश्रय, चक्रव्यूह की रचना–उद्दीपन तथा अभिमन्यु के वाक्य–अनुभाव हैं। गर्व, औत्सुक्य, हर्ष आदि संचारी भाव हैं। इन सभी के संयोग से वीर रस की निष्पत्ति हुई है।
उदाहरण 2-
साजि चतुरंग सैन अंग, में उमंग धारि,
सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत है। भूषन भनत नाद बिहद नगारन के,
नदी नद मर्द गैबरने के रलत है ॥ ( काव्यांजलि : शिवा-शौर्य)
स्पष्टीकरण-प्रस्तुत पद में शिवाजी की चतुरंगिणी सेना के प्रयाण का चित्रण है। इसमें ‘शिवाजी के हृदय का उत्साह’ स्थायी भाव है। ‘युद्ध को जीतने की इच्छा’ आलम्बन है। ‘नगाड़ों का बजना’ उद्दीपन है। ‘हाथियों के मद का बहना’ अनुभाव है तथा उग्रता’ संचारी भाव है। इन सबसे पुष्ट उत्साह’ नामक स्थायी भाव वीर रस की दशा को प्राप्त हुआ है।
(5) शान्त रस [2009, 10, 11, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
(क) परिभाषा–संसार की क्षणभंगुरता एवं सांसारिक विषय- भोगों की असारता तथा परमात्मा के ज्ञान से उत्पन्न निर्वेद (वैराग्य) ही पुष्ट होकर शान्त रस में परिणत होता है।
(ख) अवयव
स्थायी भाव-निर्वेद (उदासीनता)।
आलम्बन (विभाव)-संसार की क्षणभंगुरता, परमात्मा का चिन्तन आदि।
उद्दीपन (विभाव)-सत्संग, शास्त्रों का अनुशीलन, तीर्थ यात्रा आदि।
अनुभाव-अश्रुपात, पुलक, संसारभीरुता, रोमांच आदि।
संचारी भाव-हर्ष, स्मृति, धृति, निर्वेद, विबोध, उद्वेग आदि।
उदाहरण 1-
मन पछितैहै अवसर बीते ।
दुर्लभ देह पाई हरिपद भजु, करम वचन अरु होते ॥
अब नाथहिं अनुराग, जागु जड़-त्यागु दुरासा जीते ॥
बुझे न काम अगिनी तुलसी कहुँ बिषय भोग बहु घी ते ॥
स्पष्टीकरण–यहाँ तुलसी (या पाठक)-आश्रय हैं; संसार की असारता–आलम्बन; अपना मनुष्य जन्म व्यर्थ होने की चिन्ता–उद्दीपन; मति-धृति आदि संचारी एवं वैराग्यपरक वचन–अनुभाव हैं। इनसे मिलकर शान्त रस की निष्पत्ति हुई है।
उदाहरण 2 –
अब लौं नसानी अब न नसैहौं ।
रामकृपा भवनिसा सिरानी, जागे फिर न डसैहौं ।
पायो नाम चारु चिंतामनि, उर कर तें न खसैहौं ।
स्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी, चित कंचनहिं कसैहौं ।
परबस जानि हँस्यों इन इंद्रिन, निज बस वै न हसैहौं ।
मन-मधुकर पन करि तुलसी, रघुपति पद-कमल बसैहौं । (काव्यांजलि: विनयपत्रिका)
स्पष्टीकरण-प्रस्तुत पद में तुलसीदास जी की जगत् के प्रति विरक्ति और श्रीराम के प्रति अनुराग मुखर हुआ है। इस पद में संसार से पूर्ण विरक्ति अर्थात् ‘निर्वेद’ नामक स्थायी भाव है। आलम्बन विभाव हैं-तुलसीदास (आश्रय) तथा श्रीराम की भक्ति (विषय)। उद्दीपन विभाव हैं—श्रीराम की कृपा, सांसारिक असारता तथा इन्द्रियों द्वारा उपहास। स्वतन्त्र होना, राम के चरणों में रत होना, सांसारिक विषयों में पुनः निर्लिप्त न होना आदि से सम्बद्ध कथन अनुभाव हैं। निर्वेद, हर्ष, स्मृति आदि संचारी भाव हैं। इन सबसे पुष्ट ‘निर्वेद’ नामक स्थायी भाव शान्त रस की अवस्था को प्राप्त हुआ है।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1 निम्नलिखित पद्यांशों में कौन-से रस हैं ? प्रत्येक का स्थायी भाव भी बताइए
प्रश्न (क)
साजि चतुरंग सैन अंग में उमंग धारि,
सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत हैं ।
उत्तर
इसमें वीर रस है, जिसका स्थायी भाव उत्साह है।
प्रश्न (ख)
कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात ।।
भरे भौन मैं करत हैं, नैननु हीं सौं बात ।।
उत्तर
इसमें संयोग श्रृंगार रस है, जिसका स्थायी भाव रति है।
प्रश्न (ग)
कौन हो तुम वसंत के दूत
विरस पतझड़ में अति सुकुमार;
घन तिमिर में चपला की रेख
तपन में शीतल मन्द बयार ?
उत्तर
इसमें संयोग श्रृंगार रस है, जिसका स्थायी भाव रति है।
प्रश्न (घ)
आये होंगे यदि भरत कुमति-वश वन में,
तो मैंने यह संकल्प किया है मन में-
उनको इस शर का लक्ष चुनँगा क्षण में,
प्रतिषेध आपका भी न सुनँगा रण में ।
उत्तर
इसमें वीर रस है, जिसका स्थायी भाव उत्साह है।
प्रश्न (ङ)
सुख भोग खोजने आते सब, आये तुम करने सत्य खोज,
जग की मिट्टी के पुतले जन, तुम आत्मा के, मन के मनोज
जड़ता, हिंसा, स्पर्धा में भर, चेतना, अहिंसा, नम्र ओज ।
पशुता का पंकज बना दिया, तुमने मानवता का सरोज ।।
उत्तर
इसमें शान्त रस है, जिसका स्थायी भाव निर्वेद है।
प्रश्न 2
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए—
(क) अपनी पाठ्य-पुस्तक से करुण रस की दो पंक्तियाँ लिखिए। यह भी स्पष्ट कीजिए कि आप इसे करुण रस की रचना क्यों मानते हैं ?
(ख) हास्य रस की निष्पत्ति कब होती है ? अपनी पाठ्य-पुस्तक से उदाहरण देकर समझाइए।
(ग) अपनी पाठ्य-पुस्तक से वीर रस को बतलाने के लिए किसी पद की दो पंक्तियाँ लिखिए और स्पष्ट कीजिए कि उसे वीर रस की रचना क्यों मानते हैं ?
(घ) अपनी पाठ्य-पुस्तक से करुण रस का लक्षण लिखिए और उसका उदाहरण दीजिए।
(ङ) अपनी पाठ्य-पुस्तक से शान्त रस की दो पंक्तियाँ लिखिए और यह भी स्पष्ट कीजिए कि आप इसे शान्त रस की रचना क्यों मानते हैं ?
(च) वीर रस को लक्षण लिखिए और अपनी पाठ्य-पुस्तक के आधार पर उसका उदाहरण प्रस्तुत कीजिए।
(छ) विप्रलम्भ श्रृंगार अथवा शान्त रस का लक्षण लिखिए और एक उदाहरण दीजिए।
(ज) अपनी पाठ्य-पुस्तक से वीर रस की दो पंक्तियाँ लिखिए। रस के आलम्बन और आश्रय की ओर भी संकेत कीजिए।
(झ) संयोग शृंगार अथवा वीर रस का लक्षण लिखिए और एक उदाहरण दीजिए।
(ञ) श्रृंगार और करुण में से किसी एक रस का लक्षण और उदाहरण लिखिए।
(ट) ‘करुण’ अथवा ‘वीर’ रस के लक्षण और उदाहरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
(1) श्रृंगार (संयोग व विप्रलम्भ) रस, (2) हास्य रस, (3) करुण रस, (4) वीर रस, (5) रौद्र रस, (6) भयानक रस, (7) वीभत्स रस, (8) अद्भुत रस तथा (9) शान्त रस। कुछ विद्वान् ‘वात्सल्य रस’ और ‘भक्ति रस’ को भी उपरि-निर्दिष्ट नव रसों की श्रृंखला में ही मानते हैं।
[विशेष—माध्यमिक शिक्षा परिषद्, उ० प्र० द्वारा निर्धारित नवीनतम पाठ्यक्रम में आगे दिये जा रहे पाँच रस ही निर्धारित हैं।
(1) श्रृंगार रस [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
(क) परिभाषा-जब विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से ‘रति’ नामक स्थायी भाव रस रूप में परिणत होता है तो उसे शृंगार रस कहते हैं।
(ख) अवयव
स्थायी भाव--रति।
आलम्बन (विभाव)-नायक या नायिका।
उद्दीपन ( विभाव)—सुन्दर प्राकृतिक दृश्य तथा नायक-नायिका की वेशभूषा, विविध आंगिक चेष्टाएँ (हाव-भाव) आदि।
संचारी ( भाव)--पूर्वोक्त तैतीस में से अधिकांश।
अनुभाव-आश्रय की प्रेमपूर्ण वार्ता, अवलोकन, स्पर्श, आलिंगन, चुम्बन, कटाक्ष, अश्रु, वैवयं आदि।
(ग) श्रृंगार रस के भेद-श्रृंगार के दो भेद हैं–संयोग और विप्रलम्भ (वियोग)। संयोग श्रृंगार। [2013, 15, 16, 18]
संयोगकाल में नायक और नायिका की पारस्परिक रति को संयोग श्रृंगार कहते हैं। संयोग से आशय हे-सुख को प्राप्त करना।
उदाहरण 1-
राम कौ रूप निहारति जानकी, कंगन के नग की परछाहीं ।
यातें सबे सुधि भूलि गयी, कर टेकि रहीं पल टारति नाहीं ॥ ( तुलसीदास)
स्पष्टीकरण-यहाँ सीताजी अपने कंगन के नग में पड़ रहे राम के प्रतिबिम्ब को निहारते हुए अपनी सुध-बुध भूल गयीं और हाथ को टेके हुए जड़वत् हो गयीं। इसमें जानकी आश्रय और राम आलम्बन हैं। राम का नग में पड़ने वाला प्रतिबिम्ब उद्दीपन है। रूप को निहारना, हाथ टेकना अनुभाव और हर्ष तथा जड़ता संचारी भाव हैं।
इस प्रकार विभाव, संचारी भाव और अनुभावों से पुष्ट रति नामक स्थायी भाव संयोग श्रृंगार की अवस्था को प्राप्त हुआ है।
उदाहरण 2-
कौन हो तुम वसन्त के दूत
विरस पतझड़ में अति सुकुमार ;
घन तिमिर में चपला की रेख
तपन में शीतल मन्द बयार ।( काव्यांजलि : श्रद्धा-मनु)
स्पष्टीकरण-इस प्रकरण में रति स्थायी भाव है। आलम्बन विभाव है-श्रद्धा (विषय) और मनु (आश्रय)। उद्दीपन विभाव है-एकान्त प्रदेश, श्रद्धा की कमनीयता, शीतल-मन्द पवन। हृदय में शान्ति का मिलना अनुभाव है। आश्रय मनु के हर्ष, उत्सुकता आदि भाव संचारी भाव हैं। इस प्रकार अनुभावविभावादि से पुष्ट रति नामक स्थायी भाव संयोग श्रृंगार रस की दशा को प्राप्त हुआ है। वियोग श्रृंगार [2010, 14, 15, 16, 17]
प्रेम में अनुरक्त नायक और नायिका के परस्पर मिलन का अभाव वियोग श्रृंगार कहलाता है।
उदाहरण 1-
हे खग-मृग, हे मधुकर त्रेनी,
तुम देखी सीता मृग नैनी ? (तुलसीदास)
स्पष्टीकरण-यहाँ श्रीराम आश्रय हैं और सीताजी आलम्बन, सूनी कुटिया और वन का सूनापन उद्दीपन हैं। सीताजी की स्मृति, आवेग, विषाद, शंका, दैन्य, मोह आदि संचारी भाव हैं। इस प्रकार विभाव-अनुभाव-संचारीभाव के संयोग से रति नामक स्थायी भाव पुष्ट होकर विप्रलम्भ श्रृंगार की रसावस्था को प्राप्त हुआ है।
उदाहरण 2-
मेरे प्यारे नव जलद से कंज से नेत्र वाले
जाके आये न मधुबन से औ न भेजा सँदेशा।
मैं रो-रो के प्रिय-विरह से बावली हो रही हूँ ।
जा के मेरी सब दुःख-कथा श्याम को तू सुना दे ॥ (काव्यांजलि : पवन-दूतिका)
स्पष्टीकरण-इस छन्द में विरहिणी राधा की विरह-दशा का वर्णन किया गया है। ‘रति’ स्थायी भाव है। आलम्बन विभाव हैं-राधा (आश्रय) और श्रीकृष्ण (विषय)। उद्दीपन विभाव हैं-मेघ जैसी शोभा और कमल जैसे नेत्रों का स्मरण। श्रीकृष्ण के विरह में रुदन अनुभाव है। स्मृति, आवेग, उन्माद आदि संचारियों से पुष्ट श्रीकृष्ण से मिलन के अभाव में यहाँ वियोग श्रृंगार रस का परिपाक हुआ है।
(2) करुण रस [2009, 10,11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
(क) परिभाषा-किसी प्रिय वस्तु या वस्तु के विनाश से या अनिष्ट की प्राप्ति से करुण रस की निष्पत्ति होती है।
(ख) अवयव-
स्थायी भाव-शोक।
आलम्बन (विभाव)–विनष्ट वस्तु या व्यक्ति।
उद्दीपन (विभाव)–इष्ट के गुण तथा उनसे सम्बन्धित वस्तुएँ।।
अनुभाव–रुदन, प्रलाप, मूच्र्छा, छाती पीटना, नि:श्वास, उन्माद आदि।
संचारी भाव-स्मृति, मोह, विषाद , जड़ता, ग्लानि, निर्वेद आदि।
उदाहरण 1-
जो भूरि भाग्य भरी विदित थी निरुपमेय सुहागिनी।
हे हृदयवल्लभ ! हूँ वही अब मैं महा हतभागिनी ॥
जो साथिनी होकर तुम्हारी थी अतीव सनाथिनी।
है अब उसी मुझ-सी जगत् में और कौन अनाथिनी ॥ ( जयद्रथ-वध)
स्पष्टीकरण-अभिमन्यु की मृत्यु पर उत्तरा के इस विलाप में उत्तरा-आश्रय और अभिमन्यु की मृत्यु-आलम्बन है, पति के वीरत्व आदि गुणों का स्मरण-उद्दीपन है। अपने विगत सौभाग्य की स्मृति एवं दैन्य-संचारी भाव तथा (उत्तरा का) क्रन्दन–अनुभाव है। इनसे पुष्ट हुआ शोक नामक स्थायी भाव करुण-रसावस्था को प्राप्त हुआ है।
उदाहरण 2-
क्यों छलक रहा दुःख मेरा
ऊषा की मृदु पलकों में
हाँ! उलझ रहा सुख मेरा
सन्ध्या की घन अलकों में । (काव्यांजलि : आँसू )
स्पष्टीकरण-प्रस्तुत पद में कवि के अपनी प्रेयसी के विरह में रुदन का वर्णन किया गया है। इसमें कवि के हृदय का ‘शोक’ स्थायी भाव है। आलम्बन विभाव हैं-प्रेमी, यहाँ पर कवि (आश्रय) तथा प्रियतमा (विषय)। उद्दीपन विभाव हैं-अन्धकाररूपी केश-पाश तथा सन्ध्या। कवि के हृदय से नि:सृत उद्गार अनुभाव हैं। अश्रुरूपी प्रात:कालीन ओस की बूंदें संचारी भाव हैं। इन सबसे पुष्ट शोक नामक स्थायी भाव करुण रस की दशा को प्राप्त हुआ है।
वियोग श्रृंगार तथा करुण रस में अन्तर–वियोग श्रृंगार तथा करुण रस में मुख्य अन्तर प्रियजन के वियोग का होता है। वियोग श्रृंगार में बिछुड़े हुए प्रियजन से पुनः मिलन की आशा बनी रहती है; परन्तु करुण रस में इस प्रकार के मिलन की कोई सम्भावना नहीं होती।
(3) हास्य रस [2009, 10, 11, 12, 14, 15, 16, 17, 18]
(क) परिभाषा–जब किसी वस्तु या व्यक्ति के विकृत आकार, वेशभूषा, वाणी, चेष्टा आदि से व्यक्ति को बरबस हँसी आ जाए तो वहाँ हास्य रस है।।
(ख) अवयव
स्थायी भाव–हास।
आलम्बन (विभाव)—विचित्र-विकृत चेष्टाएँ, आकार, वेशभूषा।
उद्दीपन (विभाव)-आलम्बन की अनोखी बातचीत, आकृति।
अनुभाव-आश्रय की मुस्कान, अट्टहास।।
संचारी भाव-हर्ष, चपलता, उत्सुकता आदि।
उदाहरण 1-
नाना वाहन नाना वेषा। बिहँसे सिव समाज निज देखा ॥
कोउ मुख-हीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद-कर कोउ बहु पद-बाहू॥ (तुलसीदास)
स्पष्टीकरण-इस उदाहरण में स्थायी भाव हास के आलम्बन–शिव समाज, आश्रय-शिव, उद्दीपन-विचित्र वेशभूषा, अनुभाव—शिवजी का हँसना तथा संचारी भाव-रोमांच, हर्ष, चापल्य आदि। इनसे पुष्ट हुआ हास नामक स्थायी भाव हास्य-रसावस्था को प्राप्त हुआ है।
उदाहरण 2-
बिंध्य के वासी उदासी तपोब्रतधारी महा बिनु नारि दुखारे।
गौतमतीय तरी तुलसी, सो कथा सुनि भे मुनिबृन्द सुखारे॥
खैहैं सिला सब चंद्रमुखी परसे पदमंजुल-कंज तिहारे ।
कीन्हीं भली रघुनायकजू करुना करि कानन को पगु धारे॥ (हिन्दी : वन पथ पर)
[विशेष—पाठ्यक्रम में संकलित अंश में हास्य रस का उदाहरण दृष्टिगत नहीं होता। अत: 10वीं की पाठ्य-पुस्तक से उदाहरण दिया जा रहा है।]
स्पष्टीकरण—इस छन्द में विन्ध्याचल के तपस्वियों की मनोदशा का वर्णन किया गया है। यहाँ ‘हास’ स्थायी भाव है। आलम्बन विभाव हैं–विन्ध्य के उदास तपस्वी (आश्रय) और राम (विषय)। उद्दीपन विभाव हैं—गौतम की स्त्री का उद्धार। मुनियों का कथा आदि सुनना अनुभाव हैं। हर्ष, उत्सुकता आदि संचारी भावों से पुष्ट प्रस्तुत छन्द में हास्य रस का सुन्दर परिपाक हुआ है।
(4) वीर रस [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
(क) परिभाषा-शत्रु की उन्नति, दीनों पर अत्याचार या धर्म की दुर्गति को मिटाने जैसे किसी विकट या दुष्कर कार्य को करने का जो उत्साह मन में उमड़ता है, वही वीर रस का स्थायी भाव है, जिसकी पुष्टि होने पर वीर रस की सिद्धि होती है।
(ख) अवयव
स्थायी भाव-उत्साह।
आलम्बन (विभाव)—अत्याचारी शत्रु।।
उद्दीपन (विभाव)-शत्रु का अहंकार, रणवाद्य, यश की इच्छा आदि।
अनुभाव-गर्वपूर्ण उक्ति, प्रहार करना, रोमांच आदि।
संचारी भाव-आवेग, उग्रता, गर्व, औत्सुक्य, चपलता आदि।
उदाहरण 1-
मैं सत्य कहता हूँ सखे, सुकुमार मत जानो मुझे।
यमराज से भी युद्ध में, प्रस्तुत सदा मानो मुझे ॥
है और की तो बात क्या, गर्व मैं करता नहीं ।
मामा तथा निज तात से भी, युद्ध में डरता नहीं ॥( मैथिलीशरण गुप्त)
स्पष्टीकरण-अभिमन्यु का यह कथन अपने सारथी के प्रति है। इसमें कौरव-आलम्बन, अभिमन्यु-आश्रय, चक्रव्यूह की रचना–उद्दीपन तथा अभिमन्यु के वाक्य–अनुभाव हैं। गर्व, औत्सुक्य, हर्ष आदि संचारी भाव हैं। इन सभी के संयोग से वीर रस की निष्पत्ति हुई है।
उदाहरण 2-
साजि चतुरंग सैन अंग, में उमंग धारि,
सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत है। भूषन भनत नाद बिहद नगारन के,
नदी नद मर्द गैबरने के रलत है ॥ ( काव्यांजलि : शिवा-शौर्य)
स्पष्टीकरण-प्रस्तुत पद में शिवाजी की चतुरंगिणी सेना के प्रयाण का चित्रण है। इसमें ‘शिवाजी के हृदय का उत्साह’ स्थायी भाव है। ‘युद्ध को जीतने की इच्छा’ आलम्बन है। ‘नगाड़ों का बजना’ उद्दीपन है। ‘हाथियों के मद का बहना’ अनुभाव है तथा उग्रता’ संचारी भाव है। इन सबसे पुष्ट उत्साह’ नामक स्थायी भाव वीर रस की दशा को प्राप्त हुआ है।
(5) शान्त रस [2009, 10, 11, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
(क) परिभाषा–संसार की क्षणभंगुरता एवं सांसारिक विषय- भोगों की असारता तथा परमात्मा के ज्ञान से उत्पन्न निर्वेद (वैराग्य) ही पुष्ट होकर शान्त रस में परिणत होता है।
(ख) अवयव
स्थायी भाव-निर्वेद (उदासीनता)।
आलम्बन (विभाव)-संसार की क्षणभंगुरता, परमात्मा का चिन्तन आदि।
उद्दीपन (विभाव)-सत्संग, शास्त्रों का अनुशीलन, तीर्थ यात्रा आदि।
अनुभाव-अश्रुपात, पुलक, संसारभीरुता, रोमांच आदि।
संचारी भाव-हर्ष, स्मृति, धृति, निर्वेद, विबोध, उद्वेग आदि।
उदाहरण 1-
मन पछितैहै अवसर बीते ।
दुर्लभ देह पाई हरिपद भजु, करम वचन अरु होते ॥
अब नाथहिं अनुराग, जागु जड़-त्यागु दुरासा जीते ॥
बुझे न काम अगिनी तुलसी कहुँ बिषय भोग बहु घी ते ॥
स्पष्टीकरण–यहाँ तुलसी (या पाठक)-आश्रय हैं; संसार की असारता–आलम्बन; अपना मनुष्य जन्म व्यर्थ होने की चिन्ता–उद्दीपन; मति-धृति आदि संचारी एवं वैराग्यपरक वचन–अनुभाव हैं। इनसे मिलकर शान्त रस की निष्पत्ति हुई है।
उदाहरण 2 –
अब लौं नसानी अब न नसैहौं ।
रामकृपा भवनिसा सिरानी, जागे फिर न डसैहौं ।
पायो नाम चारु चिंतामनि, उर कर तें न खसैहौं ।
स्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी, चित कंचनहिं कसैहौं ।
परबस जानि हँस्यों इन इंद्रिन, निज बस वै न हसैहौं ।
मन-मधुकर पन करि तुलसी, रघुपति पद-कमल बसैहौं । (काव्यांजलि: विनयपत्रिका)
स्पष्टीकरण-प्रस्तुत पद में तुलसीदास जी की जगत् के प्रति विरक्ति और श्रीराम के प्रति अनुराग मुखर हुआ है। इस पद में संसार से पूर्ण विरक्ति अर्थात् ‘निर्वेद’ नामक स्थायी भाव है। आलम्बन विभाव हैं-तुलसीदास (आश्रय) तथा श्रीराम की भक्ति (विषय)। उद्दीपन विभाव हैं—श्रीराम की कृपा, सांसारिक असारता तथा इन्द्रियों द्वारा उपहास। स्वतन्त्र होना, राम के चरणों में रत होना, सांसारिक विषयों में पुनः निर्लिप्त न होना आदि से सम्बद्ध कथन अनुभाव हैं। निर्वेद, हर्ष, स्मृति आदि संचारी भाव हैं। इन सबसे पुष्ट ‘निर्वेद’ नामक स्थायी भाव शान्त रस की अवस्था को प्राप्त हुआ है।
All Chapter UP Board Solutions For Class 12 Hindi
—————————————————————————–
All Subject UP Board Solutions For Class 12 Hindi Medium
*************************************************
I think you got complete solutions for this chapter. If You have any queries regarding this chapter, please comment on the below section our subject teacher will answer you. We tried our best to give complete solutions so you got good marks in your exam.
यदि यह UP Board solutions से आपको सहायता मिली है, तो आप अपने दोस्तों को upboardsolutionsfor.com वेबसाइट साझा कर सकते हैं।