Rani Laxmi Bai In Hindi Essay: झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई वह भारतिय विरांगना थी। जिन्होंने स्वतंत्रता के लिए रणभूमि में हँसते-हँसते अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे। भारत स्वतंत्रता के लिए सन 1857 में लड़े गए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास इन्होंने ही अपने रक्त से लिखा था। हम सब के लिए उनका जीवन आदर्श के रूप में है।
Rani Laxmi Bai In Hindi Essay
लक्ष्मीबाई का जन्म:-
Rani Laxmi Bai In Hindi Essay:लक्ष्मीबाई का वास्तविक नाम मनुबाई था। ये नाना जी पेशवा राव की मुहबोली बहन थी। उन्ही के साथ खेलकूद कर ये बड़ी हुई है। वो इन्हें प्यार से छबीली कह कर पुकारते थे। लक्ष्मीबाई के पिता का नाम मोरोपन्त था। और उनकी माँ का नाम भागीरथी बाई था। ये मूलतः महाराष्ट्र के रहनेवाले थे। लक्ष्मीबाई का जन्म 13 नवम्बर सन 1835 ई.को काशी में हुआ था। और लक्ष्मीबाई का पालन-पोषण बिठूर में हुआ था।
प्रस्तावना:-
जब वो चार-पांच शाल की थी, तब ही इनकी माँ का देहांत हो गया था। बचपन से ही वो पुरुषों के साथ ही खेलना-कूदना, तीर तलवार चलाना , घुड़सवारी करना , आदि करने के कारण उनके चरित्र में भी वीर पुरषों की तरह गुणों का विकास हो गया था। बाजीराव पेशवा ने अपनी स्वतंत्रता की कहानियों से लक्ष्मीबाई के ह्रदय में उनके प्रति बहुत प्रेम उतपन्न कर दिया था।
लक्ष्मीबाई का विवाह:-
सन 1842 ई.में मनुबाई का विवाह झाँसी के अंतिम पेशवा राजा गंगाधर राव के साथ हुआ था। विवाह के बाद ये मनुबाई, ओर छबीली से रानी लक्ष्मीबाई कहलाने लगी थी। इस खुशी में राजमहल में आनन्द मनाया गया। घर-घर मे दिया जलाए गए। विवाह के नो वर्ष बाद लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया परन्तु वो जन्म के तीन महीने बाद ही चल बसा। पुत्र वियोग में गंगाधर राव बीमार पड़ गए।
तब उन्होंने दामोदर राव को गोद ले लिया। कुछ समय बाद सन 1853 ई.में राजा गंगाधर राव भी स्वर्ग सिधार गए। उनकी मृतु के बाद अंग्रेजों ने झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई को अनाथ ओर असहाय समझ कर उनके दत्तक पुत्र को अवैध घोषित कर दिया। और रानी लक्ष्मीबाई को झांसी छोड़ने को कहने लगे। परन्तु लक्ष्मीबाई ने साफ शब्दों में उनको उत्तर भेज दिया, ओर कहा झांसी मेरी है, ओर में “इसे प्राण रहते इसे नही छोड़ सकती”।
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रानी लक्ष्मीबाई की मृतु:–
तभी से रानी ने अपना सारा जीवन झाँसी को बचाने के संघर्ष और युधो में ही व्यतीत किया। उन्होंने गुप्त रूप से अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी शक्ति संचय करनी प्रारंभ कर दी। अवसर पाकर एक अंग्रेज सेनापति ने रानी को साधारण स्त्री समझ के झाँसी पर आक्रमण कर दिया परन्तु रानी पूरी तैयारी किये बैठी थी। दोनों में घमासान युद्ध हुआ। उन्होंने अंग्रेजों के दांत खटे कर दिए।
अंत मे लक्ष्मीबाई को वहां से भाग जाने के लिए विवश होना पड़ा। झाँसी से निकल कर रानी लक्ष्मीबाई कालपी पोहची ग्वालियर में रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों से डटकर मुकाबला किया परन्तु लड़ते-लड़ते वह भी स्वर्गसिधार गयी।
रानी लक्ष्मीबाई का संघर्ष :
27 फरवरी , 1854 को अंग्रेजी सरकार ने दत्तकपुत्र की गोद को अस्वीकार कर दिया और झाँसी को अंग्रेजो के राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी। जब गुप्तचरों से रानी को यह खबर मिली तो रानी ने कहा ‘ मैं अपनी झाँसी किसी को नहीं दूंगी ‘। लेकिन 7 मार्च , 1854 में झाँसी पर अंग्रेजों ने अधिकार कर ही लिया।
रानी लक्ष्मीबाई ने पेंशन को स्वीकार कर दिया और नगर वाले राजमहल में रहने लगीं। यहीं से ही तो भारत की पहली स्वाधीनता का बीज प्रस्फुटित होना शुरू हुआ था। रानी लक्ष्मी बाई का साथ देने के लिए बहुत से महान लोग कोशिशें करने लगे थे जैसे – तात्या टोपे, मर्दनसिंह, नाना साहब के वकील अजीमुल्ला, मुगल सम्राट बहादुर शाह, अंतिम मुगल सम्राट की बेगम जीनत महल, वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल आदि।
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रानी लक्ष्मीबाई का विद्रोह :
भारत की जनता में विद्रोह की भावना अपनी चर्म सीमा पर पहुंचने लगी थी। पुरे देश में अच्छी और सुदृढ तरीके से क्रांति को लाने के लिए 31 मई , 1857 की तारीख तय की गई थी लेकिन इससे पहले ही लोगों में क्रांति उत्पन्न हो गई और 7 मई , 1857 को मेरठ और 4 जून , 1857 को कानपूर में क्रांति हो गई।
कानपूर को तो 28 जून , 1857 में पूरी तरह स्वतंत्रता मिल गई। अंग्रेजों के कमांडर ने विद्रोह को दबाने की कोशिश की। उन्होंने सागर , गढ़कोटा , मडखेडा , वानपुर , मदनपुर , शाहगढ़ , तालबेहट पर अपना शासन स्थापित किया और झाँसी की ओर बढने लगे। उन्होंने अपना मोर्चा पहाड़ी मैदान में पूर्व और दक्षिण के मध्य लगाया था।
रानी लक्ष्मी बाई पहले से ही सावधान थीं और राजा मर्दनसिंह जो वानपुर के राजा थे उनसे युद्ध की और आने की सुचना मिल चुकी थी। सरदारों के आग्रह को मानकर रानी लक्ष्मीबाई ने कालपी के लिए प्रस्थान किया था। वहाँ पर जाकर वे शांत नहीं बैठी थीं। रानी लक्ष्मीबाई ने नाना साहब और उनके सेनापति तात्या टोपे से संपर्क किया और उनके साथ विचार-विमर्श किया। रानी लक्ष्मी बाई की वीरता और साहस का अंग्रेज लोहा मान गये लेकिन तब भी उन्होंने रानी का पीछा किया।
ब्रितानी राज्य :
लहौजी की राज्य हडपने की नीति की वजह से ब्रितानी राज्य ने दामोदर राव बालक को दत्तक पुत्र मानने से मना कर दिया और झाँसी को ब्रितानी राज्यों में मिलाने का फैसला किया। उस समय रानी ने ब्रितानी वकील जान लैंग से परामर्श किया और लन्दन की अदालत में मुकदमा दायर किया।
मुकदमे में बहुत बहस की गई और अंत में मुकदमे को खारिज कर दिया गया। ब्रितानी राज्य के अधिकारीयों ने राज्य के खजाने को जब्त कर लिया और रानी लक्ष्मी बाई के पति के कर्ज को रानी के सालाना खर्च में से काट लिया गया। इसके साथ रानी को झाँसी का किला छोडकर रानीमहल में जाकर रहना पड़ा था। लेकिन फिर भी रानी लक्ष्मीबाई ने हर कीमत पर झाँसी राज्य की रक्षा करने का फैसला कर लिया था।
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झाँसी का युद्ध :
झाँसी का पहला ऐतिहासिक युद्ध 23 मार्च , 1858 को शुरू हुआ था। झाँसी की रानी के आज्ञानुसार कुशल तोपची गुलाम गौस खां ने तोपों से ऐसे गोले फेंके कि अंग्रेजी सेना बुरी तरह से हैरान हो गई। रानी लक्ष्मीबाई ने लगातार सात दीनों तक अंग्रेजों से अपनी छोटी सी सेना के साथ बहुत बहादुरी से सामना किया था।
रानी जी ने बहुत बहादुरी से युद्ध में अपना परिचय दिया था। रानी लक्ष्मीबाई ने अपने दत्तक पुत्र को पीठ पर कसकर अंग्रेजों से युद्ध किया था। युद्ध का इतने दिन तक चलना असंभव था। रानी लक्ष्मी बाई का घोडा बहुत बुरी तरह से घायल था जिसकी वजह से उसे वीरगति प्राप्त हुई लेकिन तब भी उन्होंने अपनी हिम्मत नहीं हारी और अपने साहस का परिचय दिया।
कालपी पहुंचकर रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे ने एक योजना बनाई जिसमें नाना साहब, मर्दनसिंह, अजीमुल्ला आदि सभी ने रानी लक्ष्मीबाई का साथ दिया। रानी लक्ष्मीबाई और उनके साथियों ने ग्वालियर पर आक्रमण कर वहाँ के किले पर अपना शासन जमा लिया। विजय होने का उत्सव कई दीनों तक चला लेकिन रन लक्ष्मीबाई इसके खिलाफ थीं।
यह समय अपनी जीत का नहीं बल्कि अपनी शक्ति को सुसंगठित करके अपने अगले कदम को बढ़ाने का था। इस युद्ध में महिलाओं को भी सामिल किया गया था और उन्हें युद्ध कला भी सिखाई गई। आम लोगों ने भी विद्रोह में सहयोग दिया था।
उपसंहार :
अंग्रेजों का सेनापति अपनी पूरी सेना के साथ रानी लक्ष्मीबाई का पीछा करता रहा और एक दिन ग्वालियर के किले को घमासान युद्ध में अपने कब्जे में कर लिया था। रानी लक्ष्मी बाई ने इस युद्ध में भी अंग्रेजों को अपनी कुशलता का परिचय दिया था।
18 जून , 1858 को को ग्वालियर का आखिरी युद्ध हुआ था जिसमे रानी लक्ष्मी बाई ने अपनी सेना का बहुत कुशल नेतृत्व किया था। रानी लक्ष्मी बाई इस युद्ध में घायल हो गयीं और वीरगति को प्राप्त हुईं। उन्होंने जनता को चेतना दी थी और स्वतंत्रता के लिए बलिदान का संदेश दिया था। रानी लक्ष्मीबाई की वीरता , त्याग और बलिदान पर हम भारतियों को गर्व होता है।