जीवन परिचय :
सुमित्रानंदन पंत का जन्म अल्मोड़ा जिले (अब बागेश्वर) (तब उत्तर प्रदेश वर्तमान उत्तराखंड) के कौसानी में 20 मई 1900 को हुआ था। इनके जन्म के कुछ घंटों पश्चात ही इनकी माँ का देहांत हो गया. अतः इनका पालन-पोषण इनकी दादी ने किया। सुमित्रानंदन पन्त के पिता का नाम गंगादत्त पंत था. ये गंगादत्त पंत की आठवीं संतान थे।
सुमित्रानंदन पंत का जन्मस्थान कौसानी इतनी खूबसूरत जगह है कि यहाँ प्रकृति से प्रेम होना स्वाभाविक था. इसीलिए इनकी रचनाओं में भी झरना, बर्फ, पुष्प, लता, भ्रमर-गुंजन, उषा-किरण, शीतल पवन, तारोकी चुनरी ओढ़े गगन से उतरती संध्या ये सब सहज रूप से इनके काव्य का उपादान बने।
इनकी इन्ही सब काव्यगत विशेषताओं के कारण इनको प्रकृति का सुकुमार कवि भी कहा जाता
है. निसर्ग के उपादानों का प्रतीक व बिम्ब के रूप में उसका प्रयोग इनके काव्य की मुख्य विशेषता रही. इनका व्यक्तित्व भी आकर्षण का केंद्र बिंदु था.
गौर वर्ण, सुंदर सौम्य मुखाकृति, लंबे घुंघराले बाल, सुगठित शारीरिक सौष्ठव इनको सबसे अलग बनाता था। सुमित्रानंदन पंत का वास्तविक नाम गुसाई दत्त रखा गया था लेकिन इनको अपना नाम पसंद नहीं था इसलिए इन्होंने बाद में अपना नाम बदलकर सुमित्रानंदन पंत रख लिया।
सुमित्रानंदन पंत की शिक्षा दीक्षा
सुमित्रानंदन पंत 1910
में शिक्षा प्राप्त करने गवर्नमेंट हाईस्कूल अल्मोड़ा गये। यहीं उन्होंने अपना नाम गोसाईं दत्त से बदलकर सुमित्रनंदन पंत रख लिया। 1918 का समय था जब सुमित्रानंदन पंत अपने मँझले भाई के साथ काशी गये और क्वींस कॉलेज में पढ़ने लगे। वहाँ से हाईस्कूल परीक्षा उत्तीर्ण कर म्योर कालेज में पढ़ने के लिए इलाहाबाद चले गए। 1921 में असहयोग आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के भारतीयों से अंग्रेजी विद्यालयों, महाविद्यालयों, न्यायालयों एवं अन्य सरकारी कार्यालयों का बहिष्कार करने के आह्वान पर इन्होने महाविद्यालय छोड़ दिया और घर पर ही हिन्दी, संस्कृत, बँगला और अंग्रेजी भाषा-साहित्य का अध्ययन करने लगे। इलाहाबाद में ही इनकी काव्यचेतना का विकास हुआ।
आर्थिक संकट और मार्क्सवाद से परिचय
कुछ वर्षों के बाद सुमित्रानंदन पंत को घोर आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा। कर्ज से जूझते हुए पिताजी का निधन हो गया। कर्ज चुकाने के लिए जमीन और घर भी बेचना पड़ा। इन्हीं परिस्थितियों में वह
मार्क्सवाद की ओर उन्मुख हुये।
उतरोत्तर जीवन
सुमित्रानंदन पंत जी 1931 में कुँवर सुरेश सिंह के साथ कालाकांकर, प्रतापगढ़ चले गये और अनेक वर्षों तक वहीं रहे। 1938 में इन्होने प्रगतिशील मासिक पत्रिका ‘रूपाभ’ का सम्पादन किया। श्री अरविन्द आश्रम की यात्रा से इनमे आध्यात्मिक चेतना का विकास हुआ और इन्होने आजीवन अविवाहित रहने का निश्चय किया.
- 1950 से 1957 तक आकाशवाणी में परामर्शदाता रहे।
- 1958 में ‘युगवाणी’ से ‘वाणी’ काव्य संग्रहों की प्रतिनिधि कविताओं का संकलन ‘चिदम्बरा’
प्रकाशित हुआ, जिसपर 1958 में उन्हें ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ पुरस्कार
प्राप्त हुआ। - 1960 में ‘कला और बूढ़ा चाँद’ काव्य संग्रह के लिए ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ प्राप्त हुआ।
- 1961 में ‘पद्मभूषण’ की उपाधि से विभूषित हुये।
- 1964 में विशाल
महाकाव्य ‘लोकायतन’ का प्रकाशन हुआ।
कालान्तर में इनके अनेक काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। ये जीवन-पर्यन्त रचनारत रहे। - अविवाहित पंत जी
के अंतस्थल में नारी और प्रकृति के प्रति आजीवन सौन्दर्यपरक भावना रही। इनकी
मृत्यु 28
दिसम्बर 1977 को हुई।
साहित्य सृजन
सुमित्रानंदन पंत का प्रकृति से असीम लगाव था और बचपन से ही ये प्रकृति के ऊपर सुन्दर रचनाएँ लिखा करते थे। सात वर्ष की उम्र में, जब वे चौथी कक्षा में ही पढ़ रहे थे, उन्होंने कविता लिखना शुरु कर दिया था। 1918 के आसपास तक ये हिंदी के नवीन धारा के प्रवर्तक कवि के रूप में पहचाने जाने
लगे थे। इस दौर की इनकी कविताएं वीणा में संकलित हैं। 1926 में इनका प्रसिद्ध काव्य संकलन ‘पल्लव’ प्रकाशित हुआ। कुछ समय पश्चात ये अपने भाई देवीदत्त के साथ अल्मोड़ा आ गये। इसी दौरान ये मार्क्स व फ्रायड की विचारधारा के प्रभाव में आये। 1938 में इन्होंने ‘रूपाभ’ नामक प्रगतिशील मासिक पत्र निकाला।
शमशेर, रघुपति सहाय आदि के साथ ये प्रगतिशील लेखक संघ से भी जुडे रहे। ये 1950 से 1957 तक आकाशवाणी से भी जुडे रहे और मुख्य-निर्माता के पद पर कार्य किया।
इनकी विचारधारा योगी अरविन्द से प्रभावित भी हुई जो बाद की उनकी रचनाओं ‘स्वर्णकिरण’ और ‘स्वर्णधूलि’ में देखी जा सकती है। “वीणा” तथा “पल्लव” में संकलित उनके
छोटे गीत विराट व्यापक सौंदर्य तथा पवित्रता से साक्षात्कार कराते हैं। “युगांत” की रचनाओं के लेखन तक ये प्रगतिशील विचारधारा से जुड़े प्रतीत होते हैं। “युगांत” से “ग्राम्या” तक इनकी काव्ययात्रा प्रगतिवाद के निश्चित व प्रखर स्वरों की उद्घोषणा करती है।
इनकी साहित्यिक यात्रा के तीन प्रमुख पड़ाव हैं – प्रथम में ये छायावादी लगते हैं, दूसरे में समाजवादी आदर्शों से प्रेरित प्रगतिवादी तथा तीसरे में अरविन्द दर्शन से प्रभावित अध्यात्मवादी। 1907 से 1918 के काल को स्वयं उन्होंने अपने कवि-जीवन का प्रथम चरण माना है। उनकी इस काल की कविताएँ वीणा में संकलित हैं। सन् 1922 में उच्छ्वास और 1926 में पल्लव का प्रकाशन हुआ।
सुमित्रानंदन पंत की कुछ अन्य काव्य
कृतियाँ हैं – ग्रन्थि,
गुंजन, ग्राम्या, युगांत,
स्वर्णकिरण, स्वर्णधूलि, कला और बूढ़ा चाँद, लोकायतन, चिदंबरा,
सत्यकाम आदि। उनके जीवनकाल में उनकी 28
पुस्तकें प्रकाशित हुईं, जिनमें कविताएं, पद्य-नाटक और निबंध शामिल हैं। पंत अपने विस्तृत वाङमय में एक विचारक,
दार्शनिक और मानवतावादी के रूप में सामने आते हैं किंतु उनकी सबसे
कलात्मक कविताएं ‘पल्लव’ में संगृहीत
हैं, जो 1918 से 1925 तक लिखी गई 32 कविताओं का संग्रह है। इसी संग्रह
में उनकी प्रसिद्ध कविता ‘परिवर्तन’ सम्मिलित
है। ‘तारापथ’ उनकी प्रतिनिधि कविताओं
का संकलन है। उन्होंने ज्योत्स्ना नामक एक रूपक की रचना भी की है। उन्होंने
मधुज्वाल नाम से उमर खय्याम की रुबाइयों के हिंदी अनुवाद का संग्रह निकाला और डॉ. हरिवंश
राय बच्चन के साथ संयुक्त रूप से खादी के फूल नामक कविता संग्रह प्रकाशित करवाया।
सुमित्रानंदन पंत की प्रमुख कृतियां
कविता संग्रह / खंडकाव्य
- उच्छ्वास
- पल्लव
- वीणा
- ग्रन्थि
- गुंजन
- ग्राम्या
- युगांत
- युगांतर
- स्वर्णकिरण
- स्वर्णधूलि
- कला और बूढ़ा चाँद
- लोकायतन
- सत्यकाम
- मुक्ति यज्ञ
- तारापथ
- मानसी
- युगवाणी
- उत्तरा
- रजतशिखर
- शिल्पी
- सौवर्ण
- अतिमा
- पतझड़
- अवगुंठित
- ज्योत्सना
- मेघनाद वध
चुनी हुई रचनाओं के संग्रह
- युगपथ
- चिदंबरा
- पल्लविनी
- स्वच्छंद
अनूदित रचनाओं के संग्रह
मधुज्वाल (उमर ख़ैयाम की रुबाइयों
का फ़ारसी से हिन्दी में अनुवाद)
अन्य कवियों के साथ संयुक्त संग्रह
खादी के फूल (हरिवंश राय बच्चन के
साथ संयुक्त संग्रह)
पुरस्कार और सम्मान
“चिदम्बरा” के लिये
भारतीय ज्ञानपीठ, लोकायतन के लिये
सोवियत नेहरू शांति पुरस्कार और हिन्दी साहित्य की इस अनवरत सेवा के लिये उन्हें
पद्मभूषण से अलंकृत किया गया। सुमित्रानंदन पंत के नाम पर कौसानी में उनके पुराने
घर को, जिसमें वह बचपन में रहा करते थे, ‘सुमित्रानंदन पंत वीथिका’ के नाम से एक
संग्रहालय के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है। इसमें उनके व्यक्तिगत प्रयोग की
वस्तुओं जैसे कपड़ों, कविताओं की मूल पांडुलिपियों, छायाचित्रों, पत्रों और पुरस्कारों को प्रदर्शित
किया गया है। इसमें एक पुस्तकालय भी है, जिसमें उनकी
व्यक्तिगत तथा उनसे संबंधित पुस्तकों का संग्रह है।
विचारधारा
उनका संपूर्ण साहित्य ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ के आदर्शों से प्रभावित होते
हुए भी समय के साथ निरंतर बदलता रहा है। जहां प्रारंभिक कविताओं में प्रकृति और
सौंदर्य के रमणीय चित्र मिलते हैं वहीं दूसरे चरण की कविताओं में छायावाद की
सूक्ष्म कल्पनाओं व कोमल भावनाओं के और अंतिम चरण की कविताओं में प्रगतिवाद और
विचारशीलता के। उनकी सबसे बाद की कविताएं अरविंद दर्शन और मानव कल्याण की भावनाओं
से ओतप्रोत हैं। पंत परंपरावादी आलोचकों और प्रगतिवादी तथा प्रयोगवादी आलोचकों के
सामने कभी नहीं झुके। उन्होंने अपनी कविताओं में पूर्व मान्यताओं को नकारा नहीं।
उन्होंने अपने ऊपर लगने वाले आरोपों को ‘नम्र अवज्ञा’
कविता के माध्यम से खारिज किया। वह कहते थे ‘गा
कोकिला संदेश सनातन, मानव का परिचय मानवपन।’
स्मृति विशेष
उत्तराखण्ड में कुमायूँ की
पहाड़ियों पर बसे कौसानी गांव में, जहाँ
उनका बचपन बीता था, वहां का उनका घर आज ‘सुमित्रा नंदन पंत साहित्यिक वीथिका’ नामक
संग्रहालय बन चुका है। इस में उनके कपड़े, चश्मा, कलम आदि व्यक्तिगत वस्तुएं सुरक्षित रखी गई हैं। संग्रहालय में उनको मिले
ज्ञानपीठ पुरस्कार का प्रशस्तिपत्र, हिंदी साहित्य सम्मेलन
द्वारा मिला साहित्य वाचस्पति का प्रशस्तिपत्र भी मौजूद है। साथ ही उनकी रचनाएं
लोकायतन, आस्था आदि कविता संग्रह की पांडुलिपियां भी सुरक्षित
रखी हैं। कालाकांकर के कुंवर सुरेश सिंह और हरिवंश राय बच्चन से किये गये उनके
पत्र व्यवहार की प्रतिलिपियां भी यहां मौजूद हैं।
Remark:
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