जीवन परिचय :-
सूरदास (Surdas) का जन्म 1540 (वि. स.) में रुनकता नामक गाँव में हुआ। यह गाँव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है। कुछ विद्वानों का मत है कि सूर का जन्म सीही नामक ग्राम में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था. वे बहुत विद्वान थे, उनकी लोग आज भी चर्चा करते है.
सूरदास (Surdas) के पिता, रामदास गायक थे। सूरदास के जन्मांध होने के विषय में मतभेद है। प्रारंभ में सूरदास आगरा के समीप गऊघाट पर रहते थे और वहीं उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई. वे उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षित कर के कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया। सूरदास की मृत्यु गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में 1620 (वि. स.) में हुई।
‘चौरासी वैष्णव की वार्ता’ के वर्णन के अनुसार उनका जन्म रुनकता अथवा रेणु का क्षेत्र (वर्तमान
जिला आगरा के अंतर्गत) में हुआ था। मथुरा और आगरा के बीच गऊघाट पर ये निवास करते थे। बल्लभाचार्य से इनकी भेंट वहीं पर हुई थी। “भावप्रकाश’ में सूर का जन्म स्थान सीही नामक ग्राम बताया गया है। वे सारस्वत ब्राह्मण थे और जन्म के अंधे थे।
“आइने अकबरी’ में (संवत् 1653 वि०) तथा “मुतखबुत-तवारीख’
के अनुसार सूरदास को अकबर के दरबारी संगीतज्ञों में माना है।
अधिकतर विद्वानों का मत है कि सूर
का जन्म सीही नामक ग्राम में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बाद
में ये आगरा और मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे।
मदन मोहन सूरदास कैसे बने?
कुछ जनश्रुतियों के अनुसार सूरदासके बचपन का नाम मदन मोहन था. मदन मोहन एक बहुत ही सुन्दर और तेज बुद्धि का नवयुवक था जो हर दिन नदी के किनारे जा कर बैठ जाता और गीत लिखता था. एक दिन एक ऐसा वाकया हुआ जिसने उसके मन को मोह लिया. हुआ ये कि एक सुन्दर नवयुवती नदी किनारे कपड़े धो रही थी, मदन मोहन का ध्यान उसकी तरफ चला गया. उस युवती ने मदन मोहन को ऐसा आकर्षित किया कि वह कविता लिखना भूल गया और पूरा ध्यान लगा कर उस युवती को देखने लगा. उनको ऐसा लगा मानो यमुना किनारे राधिका स्नान कर के बैठी हो. उस नवयुवती ने भी मदन मोहन की तरफ देखा और उसके पास आकर बोली आप मदन मोहन जी हो ना?
जी हां मैं मदन मोहन हूँ, कविताये लिखता हूँ तथा गाता हूँ आपको देखा तो रुक गया. नवयुवती ने पूछा क्यों ? तो वह बोला आप हो ही इतनी सुन्दर. यह सिलसिला कई दिनों तक चला। जब यह बात मदन मोहन के पिता को पता चली तो उनको बहुत क्रोध आया और उन्होंने मदन मोहन को
घर से निकाल दिया पर उस सुन्दर युवती का चेहरा उनके मन मस्तिष्क से नहीं जा रहा था
एक दिन वह मंदिर मे बैठा था
तभी वह शादीशुदा और बहुत ही सुन्दर स्त्री आई. मदन
मोहन उनके पीछे-पीछे चल दिया. जब वह उसके घर पहुंचा तो उसके पति ने दरवाजा खोला
तथा पूरे आदर सम्मान के साथ उसको अंदर बिठाया. उनका ऐसा व्यवहार देखकर मदनमोहन को
बहुत ग्लानि हुयी और फिर मदन मोहन ने दो जलती हुए सलाखें मांगी और उसे अपनी आँखों
में डाल लिया। इस तरह मदन मोहन अंधे हो गया और बाद में महान कवि सूरदास के नाम से
ख्याति अर्जित की.
सूरदास की जन्मतिथि एवं जन्मस्थान के विषय में मतभेद
सूरदास की जन्मतिथि एवं जन्मस्थान
के विषय में विद्वानों में मतभेद है। “साहित्य लहरी’
सूर की लिखी रचना मानी जाती है। इसमें साहित्य लहरी के रचना-काल के
सम्बन्ध में निम्न पद मिलता है –
मुनि पुनि के रस लेख।
दसन गौरीनन्द को लिखि सुवल संवत् पेख॥
इसका अर्थ संवत्
1607 ईस्वी में माना गया है, अतएव
“साहित्य लहरी’ का रचना काल संवत्1607 वि० है। इस ग्रन्थ से यह भी प्रमाण मिलता है कि सूर के गुरु श्री
वल्लभाचार्य थे।
श्री गुरु बल्लभ तत्त्व सुनायो लीला भेद बतायो।
सूरदास की आयु ‘सूरसारावली’ के अनुसार उस समय 67 वर्ष थी। ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता‘ के आधार पर उनका जन्म रुनकता अथवा रेणु का क्षेत्र (वर्तमान जिला आगरान्तर्गत) में हुआ था। मथुरा और आगरा के बीच गऊघाट पर ये निवास करते थे। बल्लभाचार्य से इनकी भेंट वहीं पर हुई थी। “भावप्रकाश’ में सूर का जन्म स्थान सीही नामक ग्राम बताया गया है। वे सारस्वत ब्राह्मण थे और जन्म के अंधे थे। “आइने अकबरी’ में (संवत् 1653 ईस्वी) तथा “मुतखबुत-तवारीख’ के अनुसार सूरदास को अकबर के दरबारी संगीतज्ञों में माना है।
सूरदास का जन्म सं०1540 ईस्वी के लगभग ठहरता है, क्योंकि बल्लभ सम्प्रदाय में ऐसी मान्यता है कि बल्लभाचार्य सूरदास से दस दिन बड़े थे और बल्लभाचार्य का जन्म उक्त संवत् की वैशाख् कृष्ण एकादशी को हुआ था। इसलिए सूरदास की जन्म-तिथि वैशाख शुक्ला पंचमी, संवत् 1535 वि० समीचीन जान पड़ती है। अनेक प्रमाणों के आधार पर उनका मृत्यु संवत् 1620 से 1648 ईस्वी के मध्य स्वीकार किया जाता है। रामचन्द्र शुक्ल जी के मतानुसार सूरदास का जन्म संवत् 1540 वि० के सन्निकट और मृत्यु संवत् 1620 ईस्वी के आसपास मानी जाती है।
क्या सूरदास जन्मान्ध थे?
श्रीनाथ की “संस्कृतवार्ता
मणिपाला’,
श्री हरिराय कृत “भाव-प्रकाश”, श्री
गोकुलनाथ की “निजवार्ता’ आदि ग्रन्थों के आधार पर,
सूरदास जन्म के अन्धे माने गए हैं। लेकिन राधा-कृष्ण के रूप
सौन्दर्य का सजीव चित्रण, नाना रंगों का वर्णन, सूक्ष्म पर्यवेक्षणशीलता आदि गुणों के कारण अधिकतर वर्तमान विद्वान सूर को
जन्मान्ध स्वीकार नहीं करते।
श्यामसुन्दर दास ने इस सम्बन्ध में लिखा है-
“सूर वास्तव में जन्मान्ध नहीं थे, क्योंकि शृंगार तथा रंग-रुपादि का जो वर्णन उन्होंने किया है वैसा कोई जन्मान्ध नहीं कर सकता।”
हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने लिखा है –
“सूरसागर के कुछ पदों से यह ध्वनि अवश्य निकलती है कि सूरदास अपने को जन्म का अन्धा और कर्म का अभागा कहते हैं, पर हमेशा इसके अक्षरार्थ को ही प्रधान नहीं मानना चाहिए।”
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सूरदास की प्रमुख रचनाएँ
सूरदास जी द्वारा लिखित पाँच ग्रन्थ बताए जाते हैं:
सूरसागर – सूरसागर सूरदास की प्रसिद्ध रचना है। जिसमें सवा लाख पद संग्रहित थे। किंतु अब सात-आठ हजार पद ही मिलते हैं। सूरसागर का मुख्य वर्ण्य विषय श्री कृष्ण की लीलाओं का गान रहा है।
सूरसारावली – सूरसारावली में सूरदास ने जिन कृष्ण विषयक कथात्मक और सेवा परक पदों का गान किया उन्ही के सार रूप में उन्होंने सारावली की रचना की है।
साहित्यलहरी – साहित्यलहरी में सूर के दृष्टिकूट पद संकलित हैं।
नल-दमयन्ती
ब्याहलो
उपरोक्त में अन्तिम दो अप्राप्य हैं
सूरदास की काव्यगत विशेषताएँ (भाषा शैली)
सूरदास के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण
के अनुग्रह से मनुष्य को सद्गति मिल सकती है। अटल भक्ति, कर्मभेद,
जातिभेद, ज्ञान, योग से
श्रेष्ठ है।
सूर ने वात्सल्य,
श्रृंगार और शांत रसों को मुख्य रूप से अपनाया है। सूर ने अपनी
कल्पना और प्रतिभा के सहारे कृष्ण के बाल्य-रूप का अति सुंदर, सरस, सजीव और मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है। बालकों की
चपलता, स्पर्धा, अभिलाषा, आकांक्षा का वर्णन करने में विश्व व्यापी बाल-स्वरूप का चित्रण किया है।
बाल-कृष्ण की एक-एक चेष्टा के चित्रण में कवि ने कमाल की होशियारी एवं सूक्ष्म
निरीक्षण का परिचय दिया है़-
मैया कबहिं बढैगी चौटी?
किती बार मोहिं दूध पियत भई, यह अजहूँ है छोटी।
सूर के कृष्ण प्रेम और माधुर्य
प्रतिमूर्ति है। जिसकी अभिव्यक्ति बड़ी ही स्वाभाविक और सजीव रूप में हुई है।
जो कोमलकांत पदावली,
भावानुकूल शब्द-चयन, सार्थक अलंकार-योजना,
धारावाही प्रवाह, संगीतात्मकता एवं सजीवता सूर
की भाषा में है, उसे देखकर तो यही कहना पड़ता है कि सूर ने
ही सर्व प्रथम ब्रजभाषा को साहित्यिक रूप दिया है।
सूर ने भक्ति के साथ श्रृंगार को
जोड़कर उसके संयोग-वियोग पक्षों का जैसा वर्णन किया है,
वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।
सूर ने विनय के पद भी रचे हैं,
जिसमें उनकी दास्य-भावना कहीं-कहीं तुलसीदास से भी आगे बढ़ जाती है-
हमारे प्रभु औगुन चित न धरौ।
समदरसी है मान तुम्हारौ, सोई पार करौ।
सूर ने स्थान-स्थान पर कूट पद भी
लिखे हैं। इनके समान प्रेम का स्वच्छ और मार्जित रूप का चित्रण भारतीय साहित्य में
किसी और कवि ने नहीं किया है यह सूरदास की अपनी विशेषता है। वियोग के समय राधिका
का जो चित्र सूरदास ने चित्रित किया है, वह
इस प्रेम के योग्य है
सूर ने यशोदा आदि के शील,
गुण आदि का सुंदर चित्रण किया है।
सूर का भ्रमरगीत वियोग-श्रृंगार का
ही उत्कृष्ट ग्रंथ नहीं है अपितु उसमें सगुण और निर्गुण का भी विवेचन हुआ है।
इसमें विशेषकर उद्धव-गोपी संवादों में हास्य-व्यंग्य के अच्छे छींटें भी मिलते
हैं।
सूर काव्य में प्रकृति-सौंदर्य का
सूक्ष्म और सजीव वर्णन मिलता है।
सूर की कविता में पुराने आख्यानों
और कथनों का उल्लेख बहुत स्थानों में मिलता है।
सूर के गेय पदों में ह्रृदयस्थ
भावों की बड़ी सुंदर व्यजना हुई है। उनके कृष्ण-लीला संबंधी पदों में सूर के भक्त
और कवि ह्रृदय की सुंदर झाँकी मिलती है।
सूर का काव्य केवल भाव-पक्ष की दृष्टि
से ही महान नहीं है अपितु कला-पक्ष की दृष्टि से भी वह उतना ही महत्वपूर्ण है। सूर
की भाषा सरल, स्वाभाविक तथा वाग्वैदिग्धपूर्ण
है। अलंकार-योजना की दृष्टि से भी उनका कला-पक्ष सबल है।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने सूर की कवित्व-शक्ति के बारे में लिखा है-
सूरदास जब अपने प्रिय विषय का वर्णन शुरू करते हैं तो मानो अलंकार-शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे-पीछे दौड़ा करता है। उपमाओं की बाढ़ आ जाती है, रूपकों की वर्षा होने लगती है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सूरदास
हिंदी साहित्य के महाकवि हैं, क्योंकि
उन्होंने न केवल भाव और भाषा की दृष्टि से साहित्य को सुसज्जित किया, वरन् कृष्ण-काव्य की विशिष्ट परंपरा को भी जन्म दिया।
Remark:
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