वियोगी हरि (सन् 1896-1988 ई.)
जीवन-परिचय:
वियोगी हरि का जन्म सन् 1896 में मध्य प्रदेश के छतरपुर में एक ब्रहाम्ण परिवार में हुआ था। इनका वास्तविक नाम हरिप्रसाद द्विवेदी था। ये जब छह मास के थे तभी इनके पिता पं. बलदेवप्रसाद द्विवेदी का सवर्गवास हो गया। इसके बाद इनका लालन-पालन इनके नाना के संरक्षण में हुआ। घर पर ही इन्होंने हिन्दी और संस्कृत का साधारण ज्ञान प्राप्त किया।
सन् 1915 ई. में दतरपुर से हाईस्कूल की परी क्षा उत्तीर्ण की । बाद में स्वाध्याय के द्वारा ही इन्होंने विविध विषयों का ज्ञान अर्जित किया।इनके हदय में भक्ति और प्रेम की तरंगें भी उठा करती थी। इसी कारण ये दतरपुर की रानी श्रीमती कमल कुमारी के कृपा-पात्र हो गया।
कहारानी के सााि वियोगी हरि ने भारत के सभी प्रसिद्ध तीर्थस्थानों की यात्राएँ कीं। यात्रा के प्रसंग में ही ये प्रयाग भी आये थे। प्रयाग में इन्हें ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ में स्ािान मिला। यहॉं रहकर ‘सम्मेलन-पत्रिका’ का सम्पादन किया। कुछ दिनों बाद महारानी की मृत्यु के बाद इन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया।
संन्यास लेने के पश्चात् ही इन्होंने अपना नाम बदलकर वियोगी हरि रख लिया। 1932 ई. में ये ‘हरिजन सेवक संघ’ में चले गये और ‘हरिजन-सेवक’ का सम्पादन करने लगे। 1938 ई. में इनहें हरिजन बस्ती की उद्योगशाला के व्यवस्थापक का पद सौंपा गया। 9 मई 1988 ई. में इनका निधन हो गया।
साहित्यिक परिचय:
वियोगी हरि जी में साहित्य-सृजन की प्रतिभा बाल्यकाल से ही विद्यमान थी। दस वर्ष की अल्पायु से ही इन्होंने ‘सवैया’ एवं ‘कुण्डलिया’ लिखना आरम्भ कर दिया थ। ये उच्चकोटि के कवि, निबन्धकार, आलोचक, नाटककार और सम्पादक थे। ीााीाावात्मक निबन्धकार के रूप में इनको सरदार पूर्णसिंह के समकक्ष रखा जा सकता है।
गद्य एवं पद्य के माध्यम से अनके विषयों पर अपनी रचनाऍं लिखकर इन्होंने हिन्दी साहित्य को नयी दिशा प्रदान की। इनके निबन्धों में देश-प्रेम, समाज-सुधार अादि के भाव स्पष्अ दिखायी पड़ते हैं। इनके विचार काव्य के पंख धारण करके उड़ान भरते हुए प्रतीत होते हैं।
इन्हें ‘वीर सतसई’ नामक काव्य पर ‘मगलाप्रसाद पुरसकार’ प्राप्त हो चुका है। इन्होंने ‘सम्मेलन-पत्रिका’, ‘हरिजन सेवक’ के अतिरिक्त ‘विनय-पत्रिका’ तथा ‘ब्रज माधुरी-सार’ का भी सम्पादन किया। इन्होंने बालोपयोगी साहित्य लिखाा है तथा सन्तों एवं योगियों की वाधियों का संकलन किया है।
इनकी कृतियॉं दो प्रकार की है – मौलिक, सम्पदितमौलिक
- काव्य- प्रेम-पथिक, प्रेम-शतक, प्रेमांजलि, प्रेम-परिचय, मेवाड़-केसरी, अनुराग-वाटिका, वीर-सतसई आदि।
- नाटक- वीर हरदौल, हरिजन सेवा, देशभक्त, छद्म योगिनी आदि।
- गद्य-काव्य- तरंगिणी, आर्तनाद, प्रेम-योग प्रार्थना, श्रद्धाकण, भावना, पगली आदि।
- निबन्ध- साहित्य-विहार – (इसमें ग्यारह भावनात्मक निबन्धें का संग्रह है।)
- आत्मकथा- मेरा जीवन-प्रवाह
- अन्य गद्य-ग्रन्थ- अरविन्द की दिव्य वाणी, महात्मा गॉंधी का आदर्श, ठण्डे छीटे, योगी मन्िदर-प्रवेश, विश्वकर्म, बुद्धवाणी, उद्यान आदि।
सम्पादित:
सूर-पदावली, बिहारी-सग्रह, ब्रजमाधुरी-सार, सन्तवाणी, विनय-पत्रिका, पंचदशी, हिन्दी-गद्य-रत्नमाला, तुलसी-सूक्ति-सुधा आदि।
वियोगी हरि की भाषा-शैली:
इन्होंने ब्रजभाषा तथा खड़ीबोली दोनों में साहित्य की रचना की है। मुख्य रूप से इनकी भाषा के तीन रूप मिलते है – संस्कृतनिष्ठ भाषा, सरल स्पाभाविक भाषा, उर्दू-फारसी मिश्रित शब्दाावली से युक्त भाषा।
इनकी शैली दो प्रकार की हैं-
- भावात्मक शैली- इस शैली का विकास इनके गद्य-काव्यों में हुआ है। लम्बी-लम्बी समासयुक्त पदावलियों के प्रयोग भी इस शैली मे मिलते है।
- विचारात्मक शैली- यह शैली व्यावहारिक है। इसमें वाक्य छोटे-छोटे है, जो संस्कृत और उर्दू के व्यावहारिक शब्दों से बने है। सरलता, सरसता और हदय की अनुरंजकता इस शैली की विशेषता है
भाषा:
- संस्कृत की तत्सम शब्दावली से युक्त खड़ीबोली
Note: वियोगी हरि जी द्विवेदी-युग से शुक्लोत्तर-युग के लेखक है।
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Remark:
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