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परिचय
प्रस्तुत पाठ महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित ‘रामायण’ के किष्किन्धाकाण्ड से संगृहीत है। रामायण में राम-कथा के प्रसंग में स्थान-स्थान पर बड़े ही सरस, स्वाभाविक प्रकृति-वर्णन उपलब्ध होते हैं। सीता-हरण के बाद उनको खोजते हुए राम और लक्ष्मण ऋष्यमूक पर्वत पर पहुँचते हैं। वहाँ उनकी भेंट सुग्रीव से होती है, जो अपने अग्रज बालि के भय से उस पर्वत पर रहता है। राम उसे अपना मित्र मानते हुए उसके अग्रज बालि को मारकर उसको किष्किन्धा का राजा बना देते हैं। तदनन्तर वर्षा ऋतु का आगमन हो जाता है। राम-लक्ष्मण भी माल्यवान् पर्वत पर वर्षा ऋतु का समय व्यतीत करने लगते हैं। यहीं राम ने लक्ष्मण से वर्षा के आगमन के दृश्यों का मनोहारी वर्णन किया है। किष्किन्धाकाण्ड का यह वर्षा-वर्णन अपने आप में अनुपम है।
पाठ-सारांश
राम ने बालि को मारकर, सुग्रीव को किष्किन्धा का राज्य देकर माल्यवान् पर्वत के ऊपर रहते हुए वर्षा के आगमन को देखकर लक्ष्मण से कहा-हे लक्ष्मण! वर्षा का समय आ गया है। अब आकाश पर्वत के समान आकार वाले बादलों से ढक गया है। नीले मेघों के मध्य चमकती हुई बिजली रावण के पाश में छटपटाती हुई तपस्विनी सीता के समान मालूम पड़ रही है। धूल शान्त हो गयी है, वायु बर्फीली है, गर्मी की तेज धूप और चलती हुई गर्म हवाएँ नष्ट हो गयी हैं। राजाओं ने अपनी विजय-यात्राएँ स्थगित कर दी हैं और प्रवासी लोग। वापस घर लौट रहे हैं। बादलों से ढक जाने के कारण आकाश कहीं स्पष्ट और कहीं अस्पष्ट-सा दिखाई पड़ रहा है। जामुन के फल जो रस से भरे हुए हैं, खाये जा रहे हैं। अनेक अधपके आम हवा के तीव्र झोंकों से हिलकर पृथ्वी पर गिर रहे हैं। जामुन के वृक्षों की शाखाएँ फलों से लदी हुई भौंरों के द्वारा रस-पान की जाती हुई प्रतीत हो रही हैं। प्यासे पक्षी मोतियों के समान स्वच्छ जल की बूंदों को अपनी चोंच फैलाकर प्रसन्न होकर पी रहे हैं। प्रसन्न भौरे वर्षा की धारा से नष्ट हुई केसर वाले कमलों को छोड़कर केसरयुक्त कदम्ब के
फूलों के रस का पान कर रहे हैं। वर्षा की बड़ी-बड़ी धाराएँ गिर रही हैं और तेज वायु चल रही है। नदियाँ मार्गों में फैलकर आकार में विस्तृत हो तेज गति से बह रही हैं। वर्षा की धारा से धुलकर पर्वतों की चोटियाँ बड़े-बड़े आकार वाले निर्झरों से लटकती हुई मोतियों की झालरों के समान अत्यधिक सुशोभित हो रही हैं।
पद्यांशों की ससन्दर्भ हिन्दी व्याख्या
(1)
स तदा बालिनं हत्वा सुग्रीवमभिषिच्य च।।
वसन् माल्यवतः पृष्ठे समो लक्ष्मणमब्रवीत् ॥ [2007, 11]
शब्दार्थ तदा = तब। हत्वा = मारकर अभिषिच्य = राजपद पर अभिषेक करके वसन् = रहते हुए।
माल्यवतः = माल्यवान् पर्वत। यह दक्षिण भारत में एक पर्वत है। पृष्ठे = पीठ पर, ऊपरी भाग पर। अब्रवीत् = बोले, कहा।
सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘वर्षावैभवम् शीर्षक पाठ से उधृत है।
[ संकेत इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]
अन्वय सः रामः तदा बालिनं हत्वा सुग्रीवम् (राज्ये) अभिषिच्य च माल्यवतः पृष्ठे वसन् लक्ष्मणम् अब्रवीत्।
प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में राम अपने मनोभावों को लक्ष्मण से व्यक्त कर रहे हैं।
व्याख्या राम ने उस समय अर्थात् सीता-हरण के पश्चात्; बालि को मारकर और सुग्रीव को राज्य का अभिषेक करके अर्थात् राजतिलक करके माल्यवान् पर्वत के ऊपरी भाग पर निवास करते हुए लक्ष्मण से कहा।
(2)
अयं स कालः सम्प्राप्तः समयोऽद्य जलागमः
सम्पश्य त्वं नभो मेघैः संवृत्तं गिरिसन्निभैः [2007, 10, 11, 14, 15]
शब्दार्थ सम्प्राप्तः = आ गया है। जलागमः = वर्षा ऋतु का आगमन सम्पश्य = अच्छी तरह देखो। नभः = आकाश को। मेधैः = बादलों से। संवृत्तम् = घिरे हुए। गिरिसन्निभैः = पर्वतों के समान।
अन्वय अद्य अयं सः कालः सम्प्राप्तः (य:) समय: जलागमः। त्वं गिरिसन्निभैः मेघैः संवृत्तं नभः सम्पश्य।
प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में राम लक्ष्मण से वर्षा ऋतु के आगमन की बात कह रहे हैं।
व्याख्या आज यह वह समय आ पहुँचा है, जो समय वर्षा ऋतु के आगमन का होता है। तुम पर्वतों के समान; अर्थात् विशालकाय आकार वाले बादलों से घिरे हुए आकाश को भली-भाँति देखो।
(3)
नीलमेघाश्रिता विद्युत् स्फुरन्ती प्रतिभाति मे।
स्फुरन्ती रावणस्याङ्के वैदेहीव तपस्विनी ॥ [2007,08, 10, 13]
शब्दार्थ नीलमेघाश्रिता = काले बादलों का आश्रय लेने वाली। विद्युत् = बिजली। स्फुरन्ती = चमकती हुई। प्रतिभाति मे = मुझे प्रतीत होती है। स्फुरन्ती = छटपटाती हुई। रावणस्याङ्के= रावण की गोद में। वैदेही = सीता। तपस्विनी असहाय, बेचारी।
अन्वय नीलमेघाश्रिता स्फुरन्ती विद्युत् मे रावणस्य अङ्के स्फुरन्ती तपस्विनी वैदेही इव प्रतिभाति।
प्रसंग प्रस्तुते श्लोक में बादलों के मध्य चमकती बिजली की तुलना सीता से की गयी है।
व्याख्या राम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि काले बादलों का आश्रय लेकर चमचमाती हुई बिजली मुझे ऐसी प्रतीत हो रही है, जैसे रावण की गोद में छटपटाती हुई असहाय सीता हो।
(4)
रजः प्रशान्तं सहिमोऽद्य वायुः, निदाघदोषप्रसराः प्रशान्ताः।
स्थिता हि यात्रा वसुधाधिपानां, प्रवासिनो यान्ति नराः स्वदेशान् ॥ [2006, 09, 11, 15]
शब्दार्थ रजः = धूल। प्रशान्तम् = पूर्णतया शान्त हो गयी है। सहिमः = बर्फ के कणों से युक्त, अत्यन्त शीतल। निदाघदोषप्रसराः = गर्मी के तेज धूप, लू आदि दोषों का विस्तार स्थिता = रुक गयी है। वसुधाधिपानाम् (वसुधा + अधिपानाम्) = राजाओं की। प्रवासिनः = जीविका आदि के लिए विदेश में गये हुए। यान्ति = जा रहे हैं। स्वदेशान् = अपने देशों को।
अन्वय अद्य रज: प्रशान्तं, वायुः सहिमः (अस्ति), निदाघदोषप्रसरा: प्रशान्ताः (अभवन्), वसुधाधिपानां यात्रा हि स्थिता, प्रवासिनः नराः स्वदेशान् यान्ति।।
प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में वर्षाकालीन वातावरण का वर्णन किया गया है।
व्याख्या राम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि आज धूल पूर्णतया शान्त हो गयी है। वायु बर्फ के कणों से युक्त अर्थात् अत्यन्त शीतल है। गर्मी के तेज धूप, लू आदि दोषों का विस्तार पूर्णतया शान्त हो गया है। राजाओं की (विजय) यात्राएँ रुक गयी हैं। प्रवासी अर्थात् जीविका के लिए दूसरे स्थानों में जाकर बसने वाले लोग अपने स्थानों को अर्थात् घरों को (लौटकर) जा रहे हैं।
(5)
क्वचित् प्रकाशं क्वचिदप्रकाश, नभः प्रकीर्णाम्बुधरं विभाति
क्वचित् क्वचित् पर्वतसन्निरुद्धं, रूपं यथा शान्तमहार्णवस्य॥ [2008]
शब्दार्थ क्वचित् = कहीं पर प्रकाशम् = स्पष्ट, स्वच्छ। अप्रकाशम् = अप्रकट, मलिन, अस्पष्ट नभः = आकाश। प्रकीर्णाम्बुधरं = बिखरे हुए बादलों को धारण करने वाला। विभाति = शोभित हो रहा है। पर्वत-सन्निरुद्धम् = पर्वतों से आच्छादित। रूपं = स्वरूप। यथा = जैसे। शान्तमहार्णवस्य = शान्त लहरों वाले महासागर के समान।
अन्वय प्रकीर्णाम्बुधरं नभः क्वचित् प्रकाशं क्वचित् (च) अप्रकाशं विभाति। क्वचित् क्वचित् । पर्वतसन्निरुद्धं शान्तमहार्णवस्य रूपं यथा विभाति।
प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में वर्षाकालीन आकाश की शोभा का चित्रण हुआ है।
व्याख्या राम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि बिखरे हुए बादलों वाला आकाश कहीं स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है। और कहीं अस्पष्ट सुशोभित हो रहा है। कहीं-कहीं यह पर्वतों से आच्छादित शान्त लहरों वाले महासागर के स्वरूप जैसा सुशोभित हो रहा है।
(6)
रसाकुलं षट्पदसन्निकाशं प्रभुज्यते जम्बुफलं प्रकामम्।
अनेकवर्णं पवनावधूतं भूमौ पतत्याम्नफलं विपक्वम्॥ [2006, 09, 11, 13]
शब्दार्थ रसाकुलम् = रस से पूर्णतया भरा हुआ। षट्पदसन्निकाशम् = भौंरे के समान आकार और रंग वाले; अर्थात् काले-काले)। प्रभुज्यते = खाया जा रहा है। जम्बुफलम् = जामुन का फल। प्रकामम् = अधिक मात्रा में। अनेकवर्णं = अनेक रंगों वाले। पवनावधूतम् = हवा के द्वारा हिलाये गये। भूमौ = पृथ्वी पर। पतति = गिरता है। आम्रफलं = आम का फल। विपक्वम् = विशेष रूप से पका हुआ।
अन्वय रसाकुलं षट्पद सन्निकाशं जम्बुफलं प्रकामं प्रभुज्यते। अनेकवर्णं पवनावधूतं विपक्वम् आम्रफलं भूमौ पतति।
प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में वर्षाकाल में जामुन के फल की मनोहारी छटा का वर्णन किया गया है।
व्याख्या राम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि रस से पूर्णतया भरे हुए भौंरों के समान काले रंग के जामुन के फल अत्यधिक मात्रा में खाये जा रहे हैं। अनेक रंगों वाले, वायु के झोंकों के द्वारा हिलाये गये, विशेष रूप से पके हुए आम के फल जमीन पर गिर रहे हैं।
(7)
अङ्गारचूर्णोत्करसन्निकाशैः फलैः सुपर्याप्तरसैः समृद्धाः ।
जम्बुद्वमाणां प्रविभान्ति शाखाः निपीयमाना इव षट्पदीर्घः ॥
शब्दार्थअङ्गारचूर्णोत्करसन्निकाशैः = कोयले के चूरे के समूह के समान; अर्थात् काली कान्ति वाले। सुपर्याप्तरसैः = खूब अधिक रस वाले। समृद्धाः = सम्पन्न, युक्त। जम्बुद्माणां = जामुन के वृक्षों की। प्रविभान्ति = लग रही हैं। शाखाः = शाखाएँ। निपीयमाना इव = मानो पी जाती हुई। षट्पदीधैः = भौंरों के समूहों से।
अन्वय अङ्गारचूर्णोत्करसन्निकाशैः सुपर्याप्तरसैः फलैः समृद्धयः जम्बुद्रुमाणां शाखाः षट्पदौघैः निपीयमाना इव प्रविभान्ति।
प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में फलों से लदे जामुन के वृक्ष की सुन्दरता का वर्णन किया गया है।
व्याख्या राम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि कोयलों के चूर्ण के ढेर के समान दीखने वाले; अर्थात् अत्यधिक काली कान्ति वाले, पर्याप्त रस से भरे हुए, फलों से लदी हुई जामुन के वृक्षों की शाखाएँ ऐसी लग रही हैं। मानो भौंरों के समूह जामुनों का रसपान कर रहे हों।
(8)
मुक्तासकाशं सलिलं पतलै, सुनिर्मलं पत्रपुटेषु लग्नम्।
आवर्त्य चञ्चु मुदिता विहङ्गाः, सुरेन्द्रदत्तं तृषिताः पिबन्ति ॥
शब्दार्थ मुक्तासकाशम् = मोती के समान कान्ति वाला। सलिलं = जल। पतत् = गिरते हुए। सुनिर्मलं = अत्यन्त स्वच्छ। पत्रपुटेषु लग्नम् = पत्तों के मध्य भागों में लगे हुए। आवज्यं = फैलाकर। चञ्चु = चोंच को। मुदिताः = प्रसन्न होते हुए। विहगाः = पक्षी। सुरेन्द्रदत्तम् = इन्द्र के द्वारा दिये गये। तृषिताः = प्यासे। पिबन्ति = पी रहे हैं।
अन्वय मुक्तासकाशं, सुनिर्मलं पतत् वै पत्रपुटेषु लग्नं सुरेन्द्रदत्तं सलिलं तृषिताः विहङ्गाः चञ्चुम् आवर्थ्य मुदिता (सन्तः) पिबन्ति।
प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में पत्तों पर स्थित जल-बिन्दुओं को पक्षियों द्वारा पीने का वर्णन है।
व्याख्या राम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि मोती के समान कान्ति वाले, अत्यधिक स्वच्छ, गिरते हुए और पत्तों के मध्य भाग में लगे हुए, इन्द्र देवता द्वारा दिये गये उस जल को प्यासे पक्षी अपनी चोंच फैलाकर प्रसन्न होते हुए पी रहे हैं।
(9)
नवाम्बुधाराहतकेसराणि द्रुतं परित्यज्य सरोरुहाणि।।
कदम्बपुष्पाणि सकेसराणि नवानि हृष्टा भ्रमराः पिबन्ति ॥
शब्दार्थ नवाम्बुधाराहतकेसराणि = नये वर्षा के जल की धारा से नष्ट हुए केसर वाले। द्रुतम् = शीघ्र। परित्यज्य= त्यागकर सरोरुहाणि = कमल के फूलों को कदम्बपुष्पाणि= कदम्ब के फूलों का। सकेसराणि = केसरों से युक्त। नवानि = नवीन। हृष्टा भ्रमराः = आनन्दित भौंरे। पिबन्ति = पी रहे हैं।
अन्वय हृष्टाः भ्रमरा: नवाम्बुधाराहतकेसराणि सरोरुहाणि द्रुतं परित्यज्य सकेसराणि नवानि कदम्बपुष्पाणि पिबन्ति।
प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में भौंरों द्वारा कमल-पुष्पों के स्थान पर कदम्ब-पुष्पों के रसपान का वर्णन हुआ है।
व्याख्या राम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि आनन्दित भौरे; नये वर्षा के जल की धारा से जिन कमल पुष्पों का केसर नष्ट हो गया है, उन पुष्पों को छोड़कर केसरयुक्त नये कदम्ब के पुष्प का रसपान कर रहे हैं।
(10)
वर्षप्रवेगा विपुलाः पतन्ति प्रवान्ति वाताः समुदीर्णवेगाः।
प्रनष्टकूला प्रवहन्ति शीघ्रं नद्यो जलं विप्रतिपन्नमार्गाः ॥ [2005,07]
शब्दार्थ वर्षप्रवेगा = अत्यन्त तेज वर्षा की धाराएँ। विपुलाः = अत्यधिक पतन्ति =गिर रही हैं। प्रवान्ति = चल रही हैं। वाताः = हवाएँ। समुदीर्णवेगाः = बढ़े हुए वेग वाली। प्रनष्टकुलाः = टूटे हुए किनारों वाली। प्रवहन्ति = बह रही हैं। शीघ्रं = तेजी से। जलम् = जल को। विप्रतिपन्नमार्गाः = मार्गों में इधर-उधर फैली हुई।
अन्वय विपुलाः वर्षप्रवेगाः पतन्ति। समुदीर्णवेगा: वाता: प्रवान्ति। प्रनष्टकूला: नद्यः जलं विप्रतिपन्नमार्गाः शीघ्रं प्रवहन्ति।
प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में वर्षा की अधिकता और उससे प्रभावित वायु और नदियों का वर्णन किया गया है।
व्याख्या श्री राम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि बहुत अधिक तेज वर्षा की धाराएँ गिर रही हैं। तेज गति वाली हवाएँ चल रही हैं। नदियों में वर्षा का अधिक जल भर जाने के कारण टूटे हुए किनारों वाली नदियों का जल मार्गों में चारों ओर फैलकर तेजी से बह रहा है।
(11)
“हान्ति कुटानि महीधराणां धाराविधौतान्यधिकं विभान्ति।
महाप्रमाणैर्विपुलैः प्रपातैः मुक्ताकलापैरिव लम्बमानैः॥ [2005,09]
शब्दार्थ महान्ति = बड़े-बड़े। कुटानि = शिखर महीधराणां = पर्वतों के। धाराविधौतानि = वर्षा के जल की धारा से धुली हुई। अधिकं विभान्ति = अधिक शोभित हो रहे हैं। महाप्रमाणैः = महान् आकार वाले। विपुलैः = विशाल प्रपातैः = झरनों के द्वारा। मुक्ताकलापैः = मोतियों की लड़ियों से लम्बमानैः = लटकते हुए।
अन्वय धाराविधौतानि महीधराणां महान्ति कुटानि महाप्रमाणैः विपुलैः प्रपातैः लम्बमानैः मुक्ताकलापैः इव अधिकं विभान्ति।
प्रसंग प्रस्तुते श्लोक में वर्षाकाल के पर्वतों की शोभा वर्णित है।
व्याख्या राम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि वर्षा की जलधारा से पर्वत धुल गये हैं। पर्वतों के शिखरों से महान् आकार वाले झरने गिर रहे हैं। वे झरने मोती की लड़ियों के समान अत्यधिक शोभा को धारण कर रहे हैं।
सूक्तिपरक वाक्यांशों की व्याख्या
(1) अयं स कालः सम्प्राप्तः समयोऽद्य जलागमः।
सन्दर्भ प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘वर्षावैभवम्’ नामक पाठ से ली गयी है।
[ संकेत इस पाठ की शेष समस्त सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]
प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में राम अपने भाई लक्ष्मण से वर्षा ऋतु के आगमन के विषय में बता रहे हैं।
अर्थ आज वह समय आ पहुँचा है, जो वर्षा के आगमन का है।
व्याख्या माल्यवान् पर्वत पर निवास करते हुए भगवान् श्रीराम ने बालि-वध के उपरान्त एक दिन पर्वत पर उठते हुए विशालकाय बादलों को देखा। उन्हीं बादलों को अपने छोटे भाई लक्ष्मण को दिखाते हुए राम कहते हैं कि पर्वत पर उमड़ते हुए इन बादलों से यह जान पड़ता है कि अब वर्षा ऋतु का आगमन हो गया है। यह इसलिए भी प्रतीत हो रहा है क्योंकि वातावरण में उड़ने वाली धूल शान्त हो गयी है, तेज और गर्म हवाओं (लू) का चलना बन्द हो गया है और बादलों के मध्य बिजली रह-रहकर चमक रही है।
(2) स्फुरन्ती रावणस्याङ्के वैदेहीव तपस्विनी।। [2006,09, 14]
प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में राम वर्षा ऋतु में बादलों के बीच चमकती हुई बिजली की तुलना सीता से कर रहे हैं।
अर्थ जैसे रावण के अंक (पाश) में छटपटाती हुई सीता।
व्याख्या वर्षा ऋतु में आकाश में बादल छाये हुए हैं और बादलों के बीच बिजली रह-रहकर चमक रही है। श्रीराम उसको देखकर विचलित हो उठते हैं; क्योंकि वह बिजली उनको रावण की पाश (बन्धन) में तड़पती हुई सीता के समान दिखाई पड़ रही है। सीता पतिव्रता नारी हैं, इसलिए वे परपुरुष का स्पर्श तक नहीं कर सकतीं। राम को भी उनकी पतिभक्ति-परायणता पर पूर्ण विश्वास है। इसीलिए वे कल्पना कर रहे हैं कि जिस प्रकार बादलों में चमकती बिजली मानो क्रोध, बेचैनी और आवेश में बादल के पाश से निकलकर भागना चाहती है, उसी प्रकार असहाय सीता भी रावण के पाश से छूटने का भरपूर प्रयास कर रही होंगी।
(3) रूपं यथा शान्तमहार्णवस्य। [2015)
प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में वर्षाकालीन आकाश की तुलना शान्त समुद्र से की गयी है।
अर्थ लहरों से रहित अर्थात् शान्त महासागर के समान स्वरूप।
व्याख्या श्रीराम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि जो बादल वर्षा के पूर्व समग्र आकाश को आच्छादित किये हुए थे, वे वर्षा के हो जाने पर बिखर गये हैं। बिखरे हुए बादल आकाश में प्रकट और अप्रकट रूप से दिखाई पड़ रहे हैं। इस कारण आकाश पर्वतों से युक्त शान्त महासागर के समान दिखाई पड़ रहा है। आशय यह है कि जहाँ पर आकाश में बादलों की विद्यमानता है वहाँ ये बादल ऐसे प्रतीत हो रहे हैं जैसे किसी शान्त अर्थात् लहरों से रहित समुद्र में कोई पर्वत उठ आया हो।
(4) भूमौ पतत्याग्रफलं विपक्वं
प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में भूमि पर गिरे हुए आम के फलों का वर्णन किया गया है।
अर्थ विशेष रूप से पंके हुए आम के फल पृथ्वी पर गिर रहे हैं।
व्याख्या श्रीराम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि वर्षा के होने के कारण आम के फल; जो पहले वृक्षों पर ही लगे हुए थे; विशेष रूप से पक जाने के कारण अर्थात् पूर्णरूपेण सुस्वादु हो जाने पर भूमि पर गिर जा रहे हैं। यह सब कुछ वर्षा के आगमन के कारण ही हो रहा है।
(5) निपीयमाना इव षट्पदीधैः। [2010]
प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में फलों से लदे जामुन के वृक्षों का वर्णन किया गया है।
अर्थ जैसे भौंरों के समूह रसपान कर रहे हों।
व्याख्या प्रस्तुत पंक्ति में श्रीराम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि वर्षा ऋतु में जामुन के वृक्षों की शाखाएँ जामुन के फलों से लदी हुई हैं; अर्थात् जामुन के फलों से वृक्ष भरे हुए हैं और इन फलों में रस भरे हुए हैं। रस से भरे ये काले रंग के जामुन के फल ऐसे लग रहे हैं, जैसे काले रंग के भौंरों के समूह जामुन के वृक्ष से लगकर उसके रस का पान कर रहे हैं। इस सूक्ति में जामुन के फलों की उपमा भौरों से की गयी है।।
श्लोक का संस्कृत-अर्थ
(1) स तदा बालिनं …………………………………………………….. लक्ष्मणं अब्रवीत् ॥ (श्लोक 1) [2012]
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके कविः कथयति यत् सः दशरथपुत्रः रामः बालिनं हत्वा तस्य भ्रातरं सुग्रीवं च राज्यशासने अभिषिच्य माल्यवत: पृष्ठे निवसन् स्व-भ्रातरं लक्ष्मणम् अब्रवीत्।
(2) अयं स कालः …………………………………………………….. संवृतं गिरिसन्तिभैः ॥ (श्लोक 2) [2006, 12, 13, 15]
संस्कृतार्थः रामः लक्ष्मणं कथयति यत् अद्य अयं स समय: उपस्थितः, यदा वर्षर्तुः आगच्छति, यतः त्वं सम्पश्य नभः पर्वतसदृशैः मेघैः आच्छादितः।
(3) रजः प्रशान्तं …………………………………………………….. यान्ति नराः स्वदेशान्॥ (श्लोक 4)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके कविः वर्षायाः प्रभावः वर्णयति यत् अद्य रजः शान्तं वायुः शीतलः ग्रीष्मदोषाः समाप्ताः अभवन्। नृपाणां यात्रा स्थगिता। परदेशगता: नराः स्वदेशान् प्रत्यागच्छन्ति।
(4) क्वचित् प्रकाशं …………………………………………………….. यथा शान्तमहार्णवस्य ॥ (श्लोक 5) [2006]
संस्कृतार्थः रामः लक्ष्मणं दर्शयन् वदति, हे लक्ष्मण! गगने क्वचित् प्रकाशः क्वचित् अन्धकारः च भवति। गगने मेघाः आच्छादिताः भवन्ति। क्वचित् शान्तसमुद्रस्य इव मेघाः सन्निरुद्धा: विभान्ति।
(5) रसाकुलं षट्पदसन्निकाशं …………………………………………………….. आम्रफलं विपक्वम्॥ (श्लोक 6)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके प्रावृट्कालसुषमा वर्णयन् कविः कथयति यत् वर्षर्ती भ्रमरसमानानि कृष्णवर्णानि सरसानि सुस्वादूनि जम्बुफलानि यथेच्छम् आस्वादयन्ति। वायुवेगेन आलोडितानि पक्वानि सुमधुराणि विविधवर्णानि आम्रफलानि धरायां पतन्ति।
(6) मुक्तासकाशं सलिलं ……………………………………………………..तृषिताः पिबन्ति ॥ (श्लोक 8)
संस्कृतार्थः सुरेन्द्रेण दत्तम्, आकाशात् पतितं, मुक्तानिर्मलं, पत्राणां पुटेषु संलग्नं, जलं तृषिताः खगाः प्रसन्नं भूत्वा चञ्चु प्रसार्य पिबन्ति।
(7) नवाम्बुधारा …………………………………………………….. भ्रमराः पिबन्ति ॥ (श्लोक 9) [2007]
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके रामः लक्ष्मणं कथयति यत् वर्षाकाले वर्षाजलं कमलानां केसराणि अपनयति। अतः प्रसन्नाः भ्रमराः तानि पुष्पाणि परित्यज्य सकेसराणि नवानि कदम्बस्य पुष्पाणि पिबन्ति।
(8) वर्षप्रवेगा विपुलाः …………………………………………………….. जलं विप्रतिपन्नमार्गाः ॥ (श्लोक 10) [2007]
संस्कृतार्थः श्रीरामः लक्ष्मणं प्रति वर्षत: वर्णयन् कथयति यत् अत्यधिका: वर्षाधारा: आकाशात् पतन्ति समुदीर्णवेगा: पवना: प्रवहन्ति। नद्यः स्वानि कुलानि नष्टं कृत्वा मार्गेषु जलम् इतस्ततः प्रसारयित्वा शीघ्र प्रवहन्ति।
(9) महान्ति कुटानि …………………………………………………….. कलापैरिव लम्बमानैः ॥ (श्लोक 11)
संस्कृतार्थः रामः लक्ष्मणं कथयति यत् वर्षाकाले वर्षायाः जलेन विधा एतानि पर्वताः अधिकं शोभन्ते। पर्वतानां शिखरैः यदा विपुला: प्रपाता: पतन्ति तदा ते लम्बमानैः मुक्ताकलापैः इव अधिकं शोभन्ते।
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