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(विस्तृत उत्तरीय प्रश्न)
प्रश्न 1. निम्नलिखित पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए तथा काव्यगत सौन्दर्य भी स्पष्ट कीजिए :
( प्रेम-माधुरी )
1. कूकै लगीं ……….…………………………………………………….. बरसै लगे।
शब्दार्थ- कुकै लगीं = कूकने लगीं। पात = पत्ते । सरसै लगे = सुशोभित होने लगे। दादुर = मेंढक। मयूर = मोर। सँजोगी जन = अपने प्रिय के साथ रहनेवाले लोग। हरसै = हर्षित। सीरी = शीतल । हरिचंद = कवि हरिश्चन्द्र, श्रीकृष्ण। निगोरे = निगोड़े, ब्रज की एक गाली जिसका अर्थ विकलांग होता है।
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी काव्य’ में कवित्त-छन्द भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की रचना है जो कि उनके ‘प्रेममाधुरी’ शीर्षक के अन्तर्गत संगृहीत छन्दों से उधृत है।
प्रसंग- कवि ने इस छन्द में वर्षा-ऋतु के आगमन पर दृष्टिगोचर होने वाले विविध प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन किया है।
व्याख्या- वर्षा-ऋतु आने पर कोयलें फिर कदम्ब के वृक्षों पर बैठकर कूकने लगी हैं। वर्षा के जल से धुले हुए वृक्षों के पत्ते वायु में हिलते हुए शोभा पाने लगे हैं। मेंढक बोलने लगे हैं, मोर नाचने लगे हैं और अपने प्रियजनों के समीप स्थित लोग इस वर्षा-ऋतु के दृश्यों को देख-देखकर प्रसन्न होने लगे हैं। सारी भूमि हरियाली से भर गयी है, शीतल वायु चलने लगी है और हरिश्चन्द्र (श्रीकृष्ण) को देखकर हमारे प्राण मिलने को फिर तरसने लगे हैं। झूमते हुए बादलों के साथ यह वर्षा-ऋतु फिर आ गयी और ये निगोड़े बादल फिर धरती पर झुक झुककर बरसने लगे हैं।
काव्यगत सौन्दर्य-
- कवि ने वर्षा के मनोहारी दृश्यों को शब्द-चित्रों में उतारा है।
- भाषा में सरसता एवं प्रवाह है।
- शैली वर्णनात्मक तथा शब्द चित्रात्मक है।
- अलंकार- अनुप्रास तथा पुनरुक्ति अलंकार हैं। रस-शृंगार।
2. जिय पै जु…………………………………………………………………………….. कै बिसारिए।
शब्दार्थ- निरधारिये = निर्धारित कीजिए, निश्चित कीजिए। जिय = हृदय। श्रोत = कान। उतै = उधर, कृष्ण की ओर। पराई = परवश। निषारिये = रोकिये। ताहि = उसे । बिसारिए = भुलाइये।
सन्दर्भ- प्रस्तुत छन्द ‘हिन्दी काव्य’ में संकलित एवं कवि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के ‘प्रेम-माधुरी’ काव्य संग्रह से उद्धृत है।
प्रसंग- गोपियाँ उद्धव के सम्मुख अपनी कृष्ण-प्रेमजनित विवशता का वर्णन कर रही हैं।
व्याख्या- गोपियाँ कहती हैं-हे उद्धव। यदि हमारा अपने मन पर अधिकार हो तभी तो हम लोक-लज्जा तथा अच्छे-बुरे आदि का निर्धारण कर सकती हैं। पर हमारे नेत्र, कान, हाथ, पैर सभी तो परवश हो चुके हैं। ये तो बार-बार कृष्ण की ओर ही आकर्षित होते चले जाते हैं। हम तो सब प्रकार से परवश हो चुकी हैं। अब हमें ज्ञान का उपदेश देकर आप कृष्ण से विमुख कैसे कर पायेंगे। अरे। जो मन में बसा हो उसे तो भुलाया भी जा सकता है, किन्तु स्वयं मन जिसमें बसा हुआ हो उसे कैसे भुलाया जा सकता है।
काव्यगत सौन्दर्य-
- भारतेन्दु जी ने गोपियों की प्रेम-विवशता को बड़े मार्मिक शब्दों में प्रस्तुत किया है।
- भाषी भावानुरूप है।
- शैली भावुकता से सिंचित है।
- अलंकार-अनुप्रास अलंकार की योजना है। छन्द-कवित्त।
3. यह संग में………………………………………………………………..………….. नहिं मानती हैं।
शब्दार्थ- लागिये = लगी हुई। आनती हैं = लाती हैं, धारण करती हैं। छिनहू = क्षण-भर को भी। चाल प्रलै की = आँसू बहाना । बरुनी = बरौनी । थिरें = स्थिर रहतीं । झपैं = बन्द होती हैं। उझपैं = खुलती हैं। पल = पलक। समाइबौ = बन्द होना । निहारे = देखे।
सन्दर्भ – प्रस्तुत सवैया-छन्द ‘हिन्दी काव्य’ में संकलित है जो कवि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की ‘प्रेम-माधुरी’ को प्रसाद है।
प्रसंग- कवि ने वियोगिनी गोपियों के नेत्रों की विवशता को मार्मिक वर्णन किया है।
व्याख्या- गोपियाँ कहती हैं-हे प्रिय । हमारी ये आँखें सदा आपके संग-संग ही लगी रही हैं। आपको देखे बिना इनको चैन ही नहीं पड़ता। यदि कभी क्षणभर को भी आपसे वियोग हो जाता है तो ये आँखें प्रलय की ठान लेती हैं अर्थात् आँसू बरसाना प्रारम्भ कर देती हैं। ये कभी बरौनियों में स्थिर नहीं रह पातीं। कभी बन्द होती हैं तो कभी खुलती हैं। पलकों में बन्द होना तो जैसे इनको आता ही नहीं है। हमारे प्यारे, हे प्रिय । आपको देखे बिना हमारी आँखें मानती ही नहीं।
काव्यगत सौन्दर्य-
- आँखों का मिलन-आकुलता का कवि ने बड़ा हृदयस्पर्शी वर्णन प्रस्तुत किया है। ‘प्रिय प्यारे…..नहीं मानती है’ पंक्ति के चारों ओर ही पूरे छन्द को बुना गया है।
- भाषा ब्रज है।
- शैली चमत्कारिक और आलंकारिक है।
- मुहावरों का मुक्त भाव से प्रयोग हुआ है जैसे-संग लगे डोलना, धीरज न लाना, प्रलय की चाल ठानना आदि । रस-वियोग श्रृंगार । गुण-माधुर्य, छन्द-सवैया।
4. पहिले बहु भाँति……..…………………………………………………………. अब आपुहिं धावती हैं।
शब्दार्थ- भरोसो = आश्वासन। जुदा = अलग।
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्य हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी काव्य’ में संकलित एवं भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा रचित ‘प्रेम माधुरी’ पाठ से उधृत है।
प्रसंग- इस सवैये में श्रीकृष्ण के वियोग में व्याकुल एक गोपी अपनी सखियों के समझाने पर उपालम्भ दे रही है
व्याख्या- हे सखि । पहले तो तुम हमें तरह-तरह से भरोसा दिलाती थीं कि हम अभी श्रीकृष्ण को लाकर तुमसे मिला देती हैं। जो मेरी अपनी सखियाँ कहलाती हैं, मैं उनके ही विश्वास पर बैठी रही, लेकिन अब वही मुझसे अलग हो गयी हैं। श्रीकृष्ण को मिलाने की अपेक्षा वे उल्टा मुझे ही समझाती हैं। अरी सखी । इन्होंने पहले तो मेरे हृदय में प्रेम की आग भड़का दी और अब उसे बुझाने के लिए स्वयं ही जल लेने को दौड़ी जाती हैं। यह कहाँ का न्याय है?
काव्यगत सौन्दर्य-
- यहाँ कवि ने सखियों के प्रति गोपी की खीझ का सुन्दर चित्रण किया है।
- भाषा- ब्रजे ।
- शैली- मुक्तक।
- रस- विप्रलम्भ श्रृंगार।
- छन्द- सवैया।
- अलंकार- अनुप्रास। गुण- प्रसाद।
5. ऊधौ जू सूधो गहो……………………………………………………………….. यहाँ भाँग परी है।
शब्दार्थ- गहो = पकड़ो। सिख = शिक्षा। खरी = पक्की।
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्य हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी काव्य’ में संकलित एवं भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा रचित ‘प्रेम माधुरी’ से उधृत है।
प्रसंग- इस सवैये में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि वे किसी प्रकार भी उनके निराकार ब्रह्म के उपदेश को ग्रहण नहीं कर सकतीं।
व्याख्या- हे उद्धव। तुम उस मार्ग पर सीधे चले जाओ, जहाँ तुम्हारे ज्ञान की गुदड़ी रखी हुई है। यहाँ पर तुम्हारे उपदेश को कोई गोपी ग्रहण नहीं करेगी; क्योंकि सभी श्रीकृष्ण के प्रेम में विश्वास रखती हैं। हे उद्धव । ये सभी ब्रजबालाएँ एक-सी हैं, कोई भिन्न प्रकृति की नहीं हैं। इनकी तो पूरी मण्डली ही बिगड़ी हुई है। यदि किसी एक गोपी की बात होती तो तुम उसे ज्ञान का उपदेश देते किन्तु यहाँ तो कुएँ में ही भाँग पड़ी हुई है अर्थात् सभी श्रीकृष्ण के प्रेम-रस में सराबोर होकर पागल-सी हो गयी हैं। इसलिए तुम्हारा उपदेश देना व्यर्थ होगा।
काव्यगत सौन्दर्य-
- यहाँ कवि ने श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों का अनन्य प्रेम प्रकट किया है।
- भाषा- मुहावरेदार, सरस ब्रज।
- शैली- मुक्तक।
- छन्द- सवैया।
- अलंकार- अनुप्रास, रूपक। रस- शृंगार।
6. सखि आयो बसन्त ………………………………………………….. पाँय पिया परसों।
शब्दार्थ- रितून को कन्त = ऋतुओं को स्वामी बसन्त । वर = श्रेष्ठ। समीर = वायु । गर सों = गले तक, पूरी तरह। परसों = (1) स्पर्श करूँ, (2) आने वाख्ने कल के बाद का दिन।
सन्दर्भ- प्रस्तुतः पद्य हमारी पाठ्यपुस्तक हिद्धी काव्य में भ्रारतेन्दु हुश्चिन्द्र द्वाह चूित ग्रेस धुमाढले अधूख है।
प्रसंग- इस सवैये में बसन्त ऋतु के आगमन पर गोपियों की विरह-व्यथा का चित्रण किया गया है।
व्याख्या- एक गोपी कृष्ण-विरह से पीड़ित होकर दूसरी सखी से अपनी मनोव्यथा को व्यक्त करती हुई कहती है कि हे सखि । ऋतुओं का स्वामी बसन्त आ गया है। चारों दिशाओं में पीली-पीली सरसों फूल रही है। अत्यन्त सुन्दर, शीतल, मन्द और सुगन्धित वायु बह रही है किन्तु बसन्त ऋतु का मादक वातावरण श्रीकृष्ण के बिना मुझे पूर्णरूप से कष्टदायक प्रतीत हो रहा है। नन्दनन्दन श्रीकृष्ण हमसे यह बताकर गये थे कि मैं परसों तक मथुरा से लौट आऊँगा, परन्तु उन्होंने परसों के स्थान पर न जाने कितने वर्ष व्यतीत कर दिये और अभी तक लौटकर नहीं आये। मैं तो अपने प्रियतम कृष्ण के चरणों का स्पर्श करने के लिए तरस रही हूँ, पता नहीं कब उनके दर्शन हो सकेंगे?
काव्यगत सौन्दर्य-
- बसन्त ऋतु का सुहावना वातावरण गोपियों की विरह-व्यथा को और भी अधिक बढ़ाता है।
- भाषा- ब्रज।
- शैली- वर्णनात्मक, मुक्तक।
- रस- वियोग शृंगार।
- छन्द- सवैया।
- अलंकार- यमक, अनुप्रास । गुण- माधुर्य ।
7. इन दुखियान को…………………………………………………………………….रहि जायँगी।
शब्दार्थ- चैन = शान्ति, सुख । बिकल = बेचैन। औधि = अवधि। जौन-जौन = जिस-जिस।
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्य हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी काव्य’ में संकलित एवं भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा रचित ‘प्रेम माधुरी’ पाठ से अवतरित है।
प्रसंग- इस सवैये में श्रीकृष्ण के विरह में व्याकुल गोपियों के नेत्रों की व्यथा का मार्मिक चित्रण किया गया है।
व्याख्या- विरहिणी गोपियाँ कहती हैं कि प्रियतम श्रीकृष्ण के विरह में आकुल इन नेत्रों को स्वप्न में भी शान्ति नहीं मिल पाती है; क्योंकि इन्होंने कभी स्वप्न में भी श्रीकृष्ण के दर्शन नहीं किये। इसलिए ये सदा प्रिय-दर्शन के लिए व्याकुल होते रहेंगे। प्रियतम के लौट आने की अवधि को बीतती हुई जानकर मेरे प्राण इस शरीर से निकलकर जाना चाहते हैं, परन्तु मेरे मरने पर भी ये नेत्र प्राणों के साथ नहीं जाना चाहते हैं; क्योंकि इन्होंने अपने प्रियतम कृष्ण को जी भरकर नहीं देखा है। इसलिए जिस किसी भी लोक में ये नेत्र जायेंगे, वहाँ पश्चाताप ही करते रहेंगे। हे उद्धव। तुम श्रीकृष्ण से कहना कि हमारे नेत्र मृत्यु के पश्चात् भी तुम्हारे दर्शन की प्रतीक्षा में खुले रहेंगे।
काव्यगत सौन्दर्य-
- गोपियों के एकनिष्ठ प्रेम का चित्रण है।
- भाषा- ब्रज।‘सपनेहुँ चैन न मिलना’, ‘देखो एक बारहू न नैन भरि’-मुहावरों का सुन्दर प्रयोग है।
- शैली- मुक्तक।
- रस- वियोग श्रृंगार।
- छन्द- सवैया।
- अलंकार- अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश।
- भाव-साम्य- सूर की अँखियाँ भी हरि-दर्शन की भूखी हैं –
अँखियाँ हरि दरसन की भूखी।
कैसे रहति रूप-रस राँची,ये बतियाँ सुनि रूखी॥
प्रश्न 2. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के जीवन-परिचय एवं रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की साहित्यिक सेवाओं का उल्लेख करते हुए उनके जीवन-परिचय पर प्रकाश डालिए।
अथवा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की कृतियों का उल्लेख करते हुए उनकी भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
( स्मरणीय तथ्य )
जन्म- सन् 1850 ई०, काशी। मृत्यु- सन् 1885 ई० । पिता- बाबू गोपालचन्द्र।
रचनाएँ- प्रेम-माधुरी, प्रेम-तरंग, प्रेम-फुलवारी, श्रृंगार सतसई आदि।
काव्यगत विशेषताएँ
वण्र्य-विषय- श्रृंगार, प्रेम, ईश्वर-भक्ति, राष्ट्रीय प्रेम, समाज-सुधार आदि।
भाषा- गद्य-खड़ीबोली, पद्य-ब्रजभाषा में उर्दू, अंग्रेजी आदि के शब्द मिश्रित हैं और व्याकरण की अशुद्धियाँ हैं।
शैली- उद्बोधन, भावात्मक, व्यंग्यात्मक।
छन्द- गीत, कवित्त, कुण्डलिया, लावनी, गजल, छप्पय, दोहा आदि।
रस तथा अलंकार- नव रसों का प्रयोग।
- जीवन-परिचय- बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म काशी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में सन् 1850 ई० में हुआ था। इनके पिता बाबू गोपालचन्द्र जी (गिरधरदास) ब्रजभाषा के अच्छे कवि थे। इन्हें काव्य की प्रेरणा पिता से ही मिली थी। पाँच वर्ष की अवस्था में ही एक दोहा लिखकर बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने पिता से कवि होने का आशीर्वाद प्राप्त कर लिया था। दुर्भाग्य से भारतेन्दु जी की स्कूली शिक्षा सम्यक् प्रकार से नहीं हो सकी थी। इन्होंने घर पर ही हिन्दी, उर्दू, फारसी, अंग्रेजी और संस्कृत भाषाओं का ज्ञान स्वाध्याय से प्राप्त किया था। भारतेन्दु जी साहित्य स्रष्टा होने के साथ-साथ साहित्यकारों और कलाकारों को खूब सम्मान करते थे। ये अत्यन्त ही मस्तमौला स्वभाव के व्यक्ति थे और इसी फक्कड़पन में आकर इन्होंने अपनी सारी पैतृक सम्पत्ति को बर्बाद कर दिया था जो बाद में इनके पारिवारिक कलह का कारण बना। सन् 1885 ई० में इनका देहान्त राजयक्ष्मी की बीमारी से हो गया। 35 वर्ष के अल्पकाल में ही भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी के सर्वतोन्मुखी विकास के लिए जो प्रयास किया वह अद्वितीय । था। इन्होंने पत्रिका प्रकाशन के साथ-साथ लेखकों का एक दल तैयार किया और निबन्ध, कहानी, उपन्यास, नाटक, कविता आदि हिन्दी की विभिन्न विधाओं में साहित्य प्रणयन को प्रेरणा प्रदान की। भारतेन्दु की साहित्यिक सेवाओं का ही परिणाम है कि उनके युग को ‘भारतेन्दु युग’ कहा गया है।
- रचनाएँ- बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की प्रसिद्ध काव्य-रचनाएँ हैं-प्रेम-माधुरी, प्रबोधिनी, प्रेम-सरोवर, प्रेम-फुलवारी, सतसई श्रृंगार, भक्तमाल, विनय, प्रेम पचीसी आदि । काशी नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित तीन खण्डों में भारतेन्दु ग्रन्थावली’ नाम से इनकी सस्त रचनाओं का संकलन हुआ है। भारतेन्दु जी की रचनाओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इन्होंने रीतिकालीन काव्यधारा को राजदरबारी विलासिता के वातावरण से मुक्त कराकर स्वतन्त्र जन-जीवन के साथ विचरण करने की नयी दिशा प्रदान की। इनकी रचनाओं में प्रेम और भक्ति के साथ-साथ राष्ट्रीयता, समाज-सुधार, राष्ट्रभक्ति और देश-प्रेम के व्यापक स्वरूप के दर्शन होते हैं। इन्होंने रीतिकालीन कवियों की भाँति प्रेम और श्रृंगार की भी सरल एवं भावपूर्ण मार्मिक रचनाएँ की हैं।
काव्यगत विशेषताएँ
- (क) भाव-पक्ष-
- भारतेन्दु जी को हिन्दी के आधुनिक काल का प्रथम राष्ट्रकवि नि:संकोच कहा जा सकता है। क्योंकि सर्वप्रथम इन्होंने ही साहित्य में राष्ट्रीयता, समाज-सुधार, राष्ट्रभक्ति तथा देश-भक्ति के स्वर मुखर किये।
- गद्यकार के रूप में तो आप आधुनिक हिन्दी गद्य के जनक ही माने जाते हैं।
- कविवचन सुधा और हरिश्चन्द्र सुधा आदि पत्रिकाओं के माध्यम से भारतेन्दु जी ने हिन्दी के लेखकों और कवियों को प्रेरणा प्रदान की तथा पद्य की विविध विधाओं का मार्ग निर्देशन किया।
- (ख) कला-पक्ष-
- भाषा-शैली- भारतेन्दु जी की काव्य की भाषा ब्रज़ी और गद्य की भाषा खड़ीबोली है। इन्होंने भाषा का पर्याप्त संस्कार किया है। बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की काव्यगत शैलियों को निम्नलिखित चार श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है- (1) भावात्मक शैली, (2) अलंकृत शैली, (३) उद्बोधन शैली तथा (4) व्यंजनात्मक शैली ।। इसके अतिरिक्त गद्य के क्षेत्र में परिचयात्मक, विवेचनात्मक तथा भावात्मक, तीन प्रकार की रचनाएँ प्रयुक्त हुई हैं।
- रस-छन्द-अलंकार- बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की रचनाओं में भक्ति, श्रृंगार, हास्य, वीभत्स और करुण आदि रसों को विशेष रूप से प्रयोग हुआ है। इन्होंने गीति काव्य के अतिरिक्त कवित्त, सवैया, छप्पय, कुण्डलिया, लावनी, गजल, दोहे आदि सभी प्रचलित छन्दों का प्रयोग अपनी रचनाओं में किया है। उपमा, रूपक, सन्देह, अनुप्रास, श्लेष, यमक इनके प्रिय अलंकार हैं।
- साहित्य में स्थान- आपको हिन्दी का युग-निर्माता कहा जाता है। आपने अपनी प्रतिभा से हिन्दी साहित्य को एक नया मोड़ दिया। इस दृष्टि से आधुनिक काल के साहित्यकारों में आपका एक विशिष्ट स्थान है।
प्रश्न 3. ‘प्रेम माधुरी’ के सम्बन्ध में भारतेन्दु के विचारों को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर- ‘प्रेम माधुरी’ कविता भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा रचित है। इस कविता में कवि ने गोपिकाओं की विरह दशा का वर्णन किया है।
सारांश- वर्षा ऋतु आने पर कोयलें फिर कदम्ब के वृक्षों पर बैठकर कूकने लगी हैं। मेंढक बोलने लगे हैं, मोर नाचने लगे। हैं और अपने प्रियजनों के समीप स्थित लोग इस वर्षा-ऋतु के दृश्यों को देख-देखकर प्रसन्न होने लगे हैं।
भगवान् श्रीकृष्ण के मथुरा चले जाने पर उनके वियोग में गोपिकाएँ अत्यन्त दु:खी हैं। मथुरा जाते समय श्रीकृष्ण ने गोपिकाओं से वादा किया था कि परसों आ जायँगे। परसों की जगह बरसों बीत गये लेकिन श्रीकृष्ण भगवान् वापस नहीं आये। उद्धव गोपिकाओं को निर्गुण ब्रह्म की उपासना का सन्देश देते हैं। इसके उत्तर में गोपिकाएँ कहती हैं कि हम लोगों का मन पूरी तरह से श्रीकृष्ण में लीन है, अत: भगवान् श्रीकृष्ण से अलग नहीं हो सकता।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. ‘प्रलय’ की चाल से कवि का क्या तात्पर्य है?
उत्तर- प्रलयकाल में भयंकर वर्षा होती है, पृथ्वी पानी में डूब जाती है। प्रलय की चाल से कवि का तात्पर्य है कि आँखों से बहुत आँसू बहते हैं।
प्रश्न 2. श्रीकृष्ण को भूलने में गोपियाँ अपने को असमर्थ क्यों पाती हैं?
उत्तर- गोपियाँ श्रीकृष्ण को भूलने में अपने को इसलिए असमर्थ पाती हैं, क्योंकि उनका स्वयं मन ही जाकर श्रीकृष्ण में बस गया था।
प्रश्न 3. ‘कूप ही में यहाँ भाँग परी है’ से कवि का क्या तात्पर्य है?
उत्तर- इस पंक्ति में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि यहाँ तो कुएँ में ही भाँग पड़ी हुई है; अर्थात् सारे ब्रजवासियों पर श्रीकृष्ण के प्रेम का नशा चढ़ा हुआ है।
प्रश्न 4. निगोड़े का अर्थ स्पष्ट करते हुए बताइए कि बादलों को निगोड़े क्यों कहा गया है?
उत्तर- बादलों को देखकर गोपियों की विरह-वेदना और तेज हो गयी। विरहिणी ने बादल को निगोड़ा इसलिए कहा है। क्योंकि बादलों ने उमड़-घुमड़ कर ऐसा वातावरण निर्मित कर दिया है कि उनकी विरह वेदना और बढ़ गयी है। बादलों ने उनके साथ ऐसा करके दुष्टता का काम किया है।
प्रश्न 5. ‘आग लगा कर पानी के लिए दौड़ने’ का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- आग लगाकर पानी के लिए दौड़ने का आशय अपनी की हुई गलत्री को छिपाना है। आग लगाकर पानी के लिए दौड़नेवाला यह दिखाना चाहता है कि आग उसने नहीं लगायी, बल्कि वह तो आग से बचाना चाहता है। विरहिणी गोपी को उसकी सखी ने पहले प्रिय से मिलाने का वायदा किया और उसके मन में उत्कण्ठा पैदा की और फिर उसे समझाने लगी।
प्रश्न 6. वियोगिनी गोपियों की आँखों को सदैव पश्चात्ताप क्यों रहेगा?
उत्तर- गोपियों की आँखें कृष्ण को नयन भरकर नहीं देख पायीं; अत: उनके वियोग में मरने के उपरान्त जिस-जिस लोक में वे जायेंगी, उन्हें पश्चात्ताप रहेगा।
प्रश्न 7. कृष्ण के रूप-सौन्दर्य को देखे बिना गोपियों के नेत्रों की क्या दशा हो रही है?
उत्तर- गोपियों के नेत्रों को स्वप्न में भी चैन प्राप्त नहीं है। श्रीकृष्ण के वियोग में गोपियों के प्राण निकलना चाहते हैं; किन्तु नेत्र उनके साथ नहीं जाना चाहते । अपने नेत्रों की व्याकुलता का वर्णन करती हुई गोपियाँ कहती हैं कि श्रीकृष्ण के दर्शन के अभाव में मरने पर भी हमारी आँखें खुली-की-खुली रह जायेंगी।
प्रश्न 8. भारतेन्दु जी के लेखन की भाषा बताइए। |
उत्तर- भारतेन्दु जी के लेखन की भाषा ब्रजभाषा एवं खड़ीबोली हिन्दी है।
प्रश्न 9. ‘उतै चलि जात’ में किधर जाने की ओर संकेत है?
उत्तर- जिधर श्रीकृष्ण गये (मथुरा की ओर) उधर जाने का संकेत है।
प्रश्न 10. रितून को कंत’ किसे और क्यों कहा गया है?
उत्तर- ‘रितून को कंत’ बसंत को कहा गया है क्योंकि चारों तरफ सरसों के फूल खिले हुए हैं।
प्रश्न 11. गोपियाँ उद्धव से ज्ञान का उपदेश वापस ले जाने के लिए क्यों कह रही हैं?
उत्तर- गोपियाँ उद्धव से ज्ञान का उपदेश वापस लेने को इसलिए कह रही हैं क्योंकि ब्रज में उसको कोई ग्रहण नहीं करेगा। उनका मन श्रीकृष्ण के साथ चला गया है फिर वे कौन-से मन से उनके उपदेश को ग्रहण करें।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र किस युग के साहित्यकार हैं?
उत्तर- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र भारतेन्दु युग के साहित्यकार हैं।
प्रश्न 2. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को ‘भारतेन्दु’ की उपाधि से किसने सम्मानित किया?
उत्तर- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को ‘भारतेन्दु’ की उपाधि से तत्कालीन पत्रकारों ने सम्मानित किया।
प्रश्न 3. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की किन्हीं दो रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर- ‘प्रेम-माधुरी’ और ‘प्रेम-तरंग’ ।
प्रश्न 4. ‘प्रेम-माधुरी’ भारतेन्दु जी की किस भाषा की रचना है?
उत्तर- ‘प्रेम माधुरी’ की रचना ब्रजभाषा में की गयी है।
प्रश्न 5. भारतेन्दु युग के उस कवि का नाम बताइए, जिसे खड़ीबोली को जनक कहा जाता है।
उत्तर- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ।
प्रश्न 6. निम्नलिखित में से सही उत्तर के सम्मुख सही (√) का चिह्न लगाइए-
(अ) भारतेन्दु हरिश्चन्द्र शुक्ल युग के कवि हैं। (×)
(ब) अपनी भाषा में व्यक्त बातों को सभी समझ लेते हैं। (√)
(स) अपनी मातृभाषा ही सभी उन्नति का मूल है। (√)
(द) ‘कविवचन सुधा’ पत्रिका के सम्पादक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र थे। (√)
काव्य-सौन्दर्य एवं व्याकरण-बोध
प्रश्न 1. निम्नलिखित पंक्तियों का काव्य-सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए-
(अ) परसों को बिताय दियो बरसों तरसों कब पांय पिया परसों।
(ब) पिय प्यारे तिहारे निहारे बिना, अँखियाँ दुखियाँ नहीं मानती हैं।
(स) बोलै लगे दादुर मयूर लगे नाचै फेरि ।
देखि के संजोगी जन हिय हरसै लगे।
उत्तर-
- (अ) काव्य-सौन्दर्य-
- यहाँ पर कवि ने बसंत ऋतु के आगमन का सुन्दर वर्णन करते हुए गोपियों की विरह अवस्था का मर्मस्पर्शी चित्रण किया है। प्रकृति के उद्दीपन रूप का सजीव चित्रण है।
- अलंकार- अन्त्यानुप्रास, वृत्त्यनुप्रास।
- रस- विप्रलम्भ श्रृंगार।
- भाषा- साहित्यिक ब्रजभाषा।
- शैली- भावात्मक।
- छन्द- सवैया।
- गुण- माधुर्य ।
- (ब) काव्य-सौन्दर्य-
- यहाँ गोपियों की श्रीकृष्ण दर्शन की तीव्र लालसा का सुन्दर चित्रण है।
- अलंकार- अनुप्रास
- रस- वियोग श्रृंगार ।
- भाषा- साहित्यिक ब्रजभाषा।
- गुण- माधुर्य ।
- शैली- भावात्मक।
- छन्द- सवैया।
- (स) काव्य-सौन्दर्य-
- वर्षा ऋतु विरही जन के लिए दु:खद होती है। यह उद्दीपन का कार्य करती है। तुलसी ने भी कहा है
“घन घमण्ड नभ, गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा।”
प्रश्न 2. ‘कुकै लग कोइलैं कदंबन पै बैठि फेरि’ पंक्ति में कौन-सा अलंकार है?
उत्तर- ‘कूकै लगीं’ कोइलैं कदंबन पै बैठि फेरि’ में वृत्त्यनुप्रास अलंकार है।
प्रश्न 3. निम्नलिखित मुहावरों का अर्थ स्पष्ट करते हुए वाक्यों में प्रयोग कीजिए –
प्रलय ढाना, पलकों में न समाना, कुएँ में भाँग पड़ी होना।
- प्रलय ढाना- (कहर ढाना)
मेरे परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने पर घर में जैसे प्रलये ढा गया हो। - पलकों में न समाना- (आनन्दित होना)
विवाह के समय इतना उल्लास था कि वह आनन्द जैसे पलकों में न समा रहा हो। - कुएँ में भाँग पड़ी होना- (सभी की एक जैसी स्थिति)।
कृष्ण के विरह में ब्रज की सभी गोपियाँ व्याकुल थीं, जिसे देखकर लगता था जैसे पूरे कुएँ में भाँग पड़ी हो।
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