जीवन परिचय:
पंडित रामनरेश त्रिपाठी (Ramnaresh Tripathi) का जन्म ज़िला जौनपुर के कोइरीपुर नामक गाँव में 4 मार्च, सन् 1881 ई. को एक कृषक परिवार में हुआ था। इनके पिता ‘पंडित रामदत्त त्रिपाठी’ धर्म व सदाचार परायण ब्राह्मण थे। पंडित रामदत्त त्रिपाठी भारतीय सेना में सूबेदार के पद पर रह चुके थे, उनका रक्त पंडित रामनरेश त्रिपाठी की रगों में धर्मनिष्ठा, कर्तव्यनिष्ठा व राष्ट्रभक्ति की भावना के रूप में बहता था। निर्भीकता और आत्मविश्वास जैसे गुण इनको अपने परिवार से विरासत में मिले थे।
शिक्षा:
रामनरेश त्रिपाठी की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के प्राइमरी स्कूल में हुई। जूनियर कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वो हाईस्कूल की पढाई करने के लिए निकटवर्ती जौनपुर ज़िले में आ गए लेकिन किसी कारणवश वह हाईस्कूल की शिक्षा पूरी नहीं कर सके अत: उनकी स्कूली शिक्षा मात्र कक्षा 9 तक ही थी. पिता से अनबन होने पर अट्ठारह वर्ष की आयु में वह कलकत्ता चले गए जहाँ बाद में स्वाध्याय द्वारा हिंदी भाषा के साथ-साथ अन्य कई भाषाओं में भी निपुणता प्राप्त की जिनमे हिंदी के अतिरिक्त अंग्रेजी, संस्कृत, बंगला एवं गुजराती भाषाएँ प्रमुख थी। इन्होने साहित्य सेवा को जीवन का लक्ष्य बनाया और हिंदी प्रचार के उद्देश्य से ‘हिंदी मंदिर’ की स्थापना की। ये बाद में हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के मंत्री भी रहे।
हे प्रभो आनन्ददाता की रचना:
पंडित रामनरेश त्रिपाठी में कविता के प्रति रुचि प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करते समय ही जाग्रत हो गयी थी। बाद में हाई स्कूल की पढाई बीच में छोड़कर जब यह कलकत्ता गए तो वहाँ किसी संक्रामक रोग की चपेट में आ जाने की वजह से अधिक समय तक वहाँ नहीं रह सके। एक व्यक्ति की सलाह मानकर वह अपने स्वास्थ्य सुधार के लिए जयपुर के सीकर ठिकाना स्थित फतेहपुर ग्राम में ‘सेठ रामवल्लभ नेवरिया’ के पास चले गए। यह एक संयोग ही था कि मरणासन्न स्थिति में वह अपने घर परिवार में न जाकर सुदूर अपरिचित स्थान राजपूताना के एक अजनबी परिवार में जा पहुँचे जहाँ शीघ्र ही इलाज व स्वास्थ्यप्रद जलवायु पाकर वह रोगमुक्त हो गए।
यहाँ पर पंडित रामनरेश त्रिपाठी ने सेठ रामवल्लभ नेवरिया के पुत्रों की शिक्षा-दीक्षा की ज़िम्मेदारी को कुशलतापूर्वक निभाया और इसी दौरान इनकी लेखनी पर मां सरस्वती की मेहरबानी हुई और उन्होंने “हे प्रभो! आनन्ददाता..” जैसी बेजोड़ रचना की जो आज भी अनेक स्कूलों में प्रार्थना के रूप में गाई जाती है।
साहित्य साधना की शुरुआत
साहित्य साधना की शुरुआत फतेहपुर
में होने के बाद इन्होंने उन दिनों तमाम छोटे-बड़े बालोपयोगी काव्य संग्रह, और सामाजिक उपन्यास लिखे। यहीं पर इन्होंने हिन्दी तथा संस्कृत के
सम्पूर्ण साहित्य का गहन अध्ययन किया। पं० रामनरेश त्रिपाठी जी एक बहुमुखी प्रतिभा
वाले साहित्यकार माने जाते हैं। त्रिपाठी जी पर तुलसीदास व उनकी अमर रचना रामचरित
मानस का गहरा प्रभाव था, वह मानस को घर घर तक पहुँचाना चाहते
थे। बेढब बनारसी ने उनके बारे में कहा था
“तुम तोप और मैं लाठी
तुम रामचरित मानस निर्मल, मैं रामनरेश त्रिपाठी।”
– बेढब बनारसी
फतेहपुर में काफी समय रहने के बाद पंडित
रामनरेश त्रिपाठी ज्ञान एवं अनुभव की संचित पूंजी लेकर वर्ष 1915 में पुण्यतीर्थ एवं ज्ञानतीर्थ प्रयाग चले आये और इसी को अपनी कर्मस्थली
बनाया। इन्होंने थोड़ी पूंजी से प्रकाशन का व्यवसाय भी आरम्भ किया।
रामनरेश त्रिपाठी ने गद्य और पद्य दोनों में रचनाएँ की तथा मौलिकता के नियम को ध्यान में रखकर रचनाओं को अंजाम दिया। हिन्दी जगत में वह मार्गदर्शी साहित्यकार के रूप में अवरित हुए और सारे देश में लोकप्रिय हो गए।
हिन्दी के प्रथम एवं सर्वोत्कृष्ट
राष्ट्रीय खण्डकाव्य “पथिक” की रचना इन्होंने वर्ष 1920 में मात्र 21 दिन में की थी। इसके अतिरिक्त इनके प्रसिद्ध मौलिक खण्डकाव्यों में “मिलन” और “स्वप्न” भी शामिल हैं। इन्होंने बड़े परिश्रम से ‘कविता
कौमुदी’ के सात विशाल एवं अनुपम संग्रह-ग्रंथों का भी
सम्पादन एवं प्रकाशन किया।पंडित रामनरेश त्रिपाठी कलम के धनी
ही नहीं बल्कि कर्मवीर भी थे।
महात्मा गाँधी के निर्देश पर त्रिपाठी जी हिन्दी
साहित्य सम्मेलन के प्रचार मंत्री के रूप में हिन्दी जगत के दूत बनकर दक्षिण भारत
गए थे। वह पक्के गांधीवादी देशभक्त और राष्ट्र सेवक थे। स्वाधीनता संग्राम और
किसान आन्दोलनों में भाग लेकर वह जेल भी गए। पंडित त्रिपाठी को अपने जीवन काल में
कोई राजकीय सम्मान तो नहीं मिला पर उससे भी कही ज़्यादा गौरवपद लोक सम्मान तथा
अक्षय यश उन पर अवश्य बरसा।
स्वच्छन्दतावादी कवि
रामनरेश त्रिपाठी स्वच्छन्दतावादी भावधारा के कवि के रूप में प्रतिष्ठित हुए हैं। इनसे पूर्व श्रीधर पाठक ने हिन्दी कविता में स्वच्छन्दतावाद (रोमाण्टिसिज्म) को जन्म दिया था। रामनरेश त्रिपाठी ने अपनी रचनाओं द्वारा उक्त परम्परा को विकसित किया और सम्पन्न बनाया। देश प्रेम तथा राष्ट्रीयता की अनुभूतियाँ इनकी रचनाओं का मुख्य विषय रही हैं। हिन्दी कविता के मंच पर ये राष्ट्रीय भावनाओं के गायक के रूप में बहुत लोकप्रिय हुए। प्रकृति-चित्रण में भी इन्हें अदभुत सफलता प्राप्त हुई है।
रचनाएं
पं० रामनरेश त्रिपाठी ने ज्यादातर
राष्ट्रप्रेम की कविताएँ लिखीं। कविता के अलावा इन्होंने उपन्यास,
नाटक, आलोचना, हिन्दी
साहित्य का संक्षिप्त इतिहास तथा बालोपयोगी पुस्तकें भी लिखीं।
इनकी मुख्य काव्य कृतियाँ हैं- ‘मिलन, ‘पथिक, ‘स्वप्न तथा ‘मानसी। रामनरेश त्रिपाठी ने लोक-गीतों के चयन के लिए कश्मीर से
कन्याकुमारी और सौराष्ट्र से गुवाहाटी तक सारे देश का भ्रमण किया।
काव्य कृतियाँ
इनकी चार काव्य कृतियाँ उल्लेखनीय हैं-
- ‘मिलन’ (1918 ई.)
- ‘पथिक’ (1921 ई.)
- ‘मानसी’ (1927 ई.)
- ‘स्वप्न’
(1929 ई.)
इनमें ‘मानसी’ फुटकर कविताओं का संग्रह है और शेष तीनों
कृतियाँ प्रेमाख्यानक खण्डकाव्य है।
उपन्यास तथा नाटक
रामनरेश त्रिपाठी जी ने काव्य-रचना
के अतिरिक्त उपन्यास तथा नाटक लिखे हैं, आलोचनाएँ
की हैं और टीका भी लिखा है. इनके तीन उपन्यास उल्लेखनीय हैं-
- ‘वीरागंना’
(1911 ई.), - ‘वीरबाला’
(1911 ई.), - ‘लक्ष्मी’
(1924 ई.)
नाट्य कृतियाँ
रामनरेश त्रिपाठी जी की तीन उल्लेखनीय नाट्य कृतियाँ हैं-
- ‘सुभद्रा’
(1924 ई.), - ‘जयन्त’ (1934 ई.),
- ‘प्रेमलोक’
(1934 ई.)
आलोचनात्मक कृतियाँ
आलोचनात्मक कृतियों के रूप में इनकी
दो पुस्तकें ‘तुलसीदास और उनकी
कविता’ तथा ‘हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास’
विचारणीय हैं।
टीका
रामनरेश त्रिपाठी जी एक टीकाकार के
रूप में अपनी ‘रामचरितमानस की टीका’
के कारण स्मरण किये जाते हैं। ‘तीस दिन
मालवीय जी के साथ’ त्रिपाठी जी की उत्कृष्ट संस्मरणात्मक
कृति है। इनके साहित्यिक कृतित्व का एक महत्त्वपूर्ण भाग सम्पादन कार्यों के
अंतर्गत आता है।
सन् 1925 ई. में इन्होंने हिन्दी, उर्दू, संस्कृत और बांग्ला की लोकप्रिय कविताओं का संकलन और सम्पादन किया। इनका यह कार्य आठ भागों में ‘कविता कौमुदी’ के नाम से प्रकाशित हुआ है। इसी में एक भाग ग्राम-गीतों का है। ग्राम-गीतों के संकलन, सम्पादन और उनके भावात्मक भाष्य प्रस्तुत करने की दृष्टि से इनका कार्य विशेष रूप से उल्लेखनीय रहा है।
ये हिन्दी में इस दिशा में कार्य करने वाले पहले व्यक्ति रहे हैं और इन्हें पर्याप्त सफलता तथा कीर्ति मिली है। 1931 से 1941 ई. तक इन्होंने ‘वानर’ का सम्पादन तथा प्रकाशन किया था। इनके द्वारा सम्पादित और मौलिक रूप में लिखित बालकोपयोगी साहित्य भी बहुत अधिक मात्रा में उपलब्ध है।
खण्ड काव्य
रामनरेश त्रिपाठी ने खण्ड काव्यों की रचना के लिए किन्हीं पौराणिक अथवा ऐतिहासिक कथा सूत्रों का आश्रय नहीं लिया है, वरन् अपनी कल्पना शक्ति से मौलिक तथा मार्मिक कथाओं की सृष्टि की है। कवि द्वारा निर्मित होने के कारण इन काव्यों के चरित्र बड़े आकर्षक हैं और जीवन के साँचे में ढाले हुए जान पड़ते हैं। इन तीनों ही खण्ड काव्यों की एक सामान्य विशेषता यह है कि इनमें देशभक्ति की भावनाओं का समावेश बहुत ही सरसता के साथ किया गया है। उदाहरण के लिए ‘स्वप्न’ नामक खण्ड काव्य को लिया जा सकता है।
इसका नायक वसन्त नामक नवयुवक एक ओर तो अपनी प्रिया के प्रगाढ़ प्रेम में लीन रहना चाहता है, मनोरम प्रकृति के क्रोड़ में उसके साहचर्य-सुख की अभिलाषा करता है और दूसरी ओर समाज का दुख-दर्द दूर करने के लिए राष्ट्रोद्धार की भावना से आन्दोलित होता रहता है। उसके मन में इस प्रकार का अन्तर्द्वन्द बहुत समय तक चलता है। अन्तत: वह अपनी प्रिया के द्वारा प्रेरित किये जाने पर राष्ट्र प्रेम को प्राथमिकता देता है और शत्रुओं द्वारा पदाक्रान्त स्वेदश की रक्षा एवं उद्धार करने में सफल हो जाता है। इस प्रकार की भावनाओं से परिपूर्ण होने के कारण रामनरेश त्रिपाठी के काव्य बहुत दिनों तक राष्ट्रप्रेमी नवयुवकों के कण्ठहार बन हुए थे।
रामनरेश त्रिपाठी की प्रमुख कृतियाँ :-
मिलन (1918) 13 दिनों में रचित
पथिक (1920) 21 दिनों में रचित
मानसी (1927) और
स्वप्न (1929)
15 दिनों में रचित. इसके लिए उन्हें हिन्दुस्तान अकादमी का पुरस्कार मिला
पं. रामनरेश त्रिपाठी जी की अन्य प्रमुख कृतियां इस प्रकार हैं:
मुक्तक :
मारवाड़ी मनोरंजन, आर्य संगीत शतक,
कविता-विनोद, क्या होम रूल लोगे, मानसी।
(काव्य) प्रबंधः
मिलन,
पथिक, स्वप्न।
कहानी :
तरकस,
आखों देखी कहानियां, स्वपनों के चित्र,
नखशिख, उन बच्चों का क्या हुआ..? और 21 अन्य कहानियाँ।
उपन्यास :
वीरांगना,
वीरबाला, मारवाड़ी और पिशाचनी, सुभद्रा और लक्ष्मी।
नाटक :
जयंत,
प्रेमलोक, वफ़ाती चाचा, अजनबी,
पैसा परमेश्वर, बा और बापू, कन्या का तपोवन।
व्यंग्य :
दिमाग़ी ऐयाशी, स्वप्नों के चित्र।
अनुवाद :
इतना तो जानो (अटलु तो जाग्जो – गुजराती से), कौन
जागता है (गुजराती नाटक)।
रामनरेश त्रिपाठी की प्रसिद्द कवितायेँ
हे प्रभो! आनन्द दाता ज्ञान हमको दीजिए।
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए।
लीजिए हमको शरण में हम सदाचारी बनें।
ब्रह्मचारी धर्मरक्षक वीर व्रत-धारी बनें॥
प्रार्थना की उपर्युक्त चार
पंक्तियाँ ही देश के कोने-कोने में गायी जाती हैं। लेकिन सच तो ये है कि माननीय
त्रिपाठी जी ने इस प्रार्थना को छह पंक्तियों में लिखा था। जिसकी आगे की दो
पंक्तियाँ इस प्रकार हैं :
गत हमारी आयु हो प्रभु! लोक के उपकार में
हाथ डालें हम कभी क्यों भूलकर अपकार में
दूसरी कविता: हमारे पूर्वज
पता नहीं है जीवन का रथ किस मंजिल
तक जाये।
मन तो कहता ही रहता है,
नियराये-नियराये॥
कर बोला जिह्वा भी बोली,
पांव पेट भर धाये।
जीवन की अनन्त धारा में सत्तर तक बह
आये॥
चले कहां से कहां आ गये,
क्या-क्या किये कराये।
यह चलचित्र देखने ही को अब तो
खाट-बिछाये॥
जग देखा,
पहचान लिए सब अपने और पराये।
मित्रों का उपकृत हूँ जिनसे नेह
निछावर पाये॥
प्रिय निर्मल जी! पितरों पर अब
कविता कौन बनाये?
मैं तो स्वयं पितर बनने को बैठा हूँ
मुँह बाये।
— 8 अप्रैल, 1958, कोइरीपुर (सुल्तानपुर), रामनरेश त्रिपाठी
इसके अलावा उन्होने गाँव–गाँव, घर–घर घूमकर रात–रात भर घरों के पिछवाड़े बैठकर सोहर और विवाह गीतों को चुन–चुनकर लगभग 16 वर्षों के अथक परिष्र्म से ‘कविता कौमुदी’ संकलन तैयार किया। जिसके 6 भाग उन्होंने 1917 से लेकर 1933 तक प्रकाशित किए।
प्रकृति चित्रण
रामनरेश त्रिपाठी अपनी काव्य
कृतियों में प्रकृति के सफल चितेरे रहे हैं। इन्होंने प्रकृति चित्रण व्यापक,
विशद और स्वतंत्र रूप में किया है। इनके सहज-मनोरम प्रकृति-चित्रों
में कहीं-कहीं छायावाद की झलक भी मिल जाती है। उदाहरण के लिए ‘पथिक’ की दो पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-
“प्रति क्षण नूतन वेष बनाकर
रंग-विरंग निराला।
रवि के सम्मुख थिरक रही है नभ में
वारिद माला”
भाषा
प्रकृति चित्र हों,
या अन्यान्य प्रकार के वर्णन, सर्वत्र रामनरेश
त्रिपाठी ने भाषा का बहुत ख्याल रखा है। इनके काव्यों की भाषा शुद्ध, सहज खड़ी बोली है, जो इस रूप में हिन्दी काव्य में
प्रथम बार प्रयुक्त दिखाई देती है। इनमें व्याकरण तथा वाक्य-रचना सम्बन्धी त्रुटियाँ
नहीं मिलतीं। इन्होंने कहीं-कहीं उर्दू के प्रचलित शब्दों और उर्दू-छन्दों का भी
व्यवहार किया है-
“मेरे लिए खड़ा था दुखियों के द्वार पर तू।
मैं बाट जोहता था तेरी किसी चमन में।।
बनकर किसी के आँसू मेरे लिए बहा तू।
मैं देखता तुझे था माशूक के बदन में”।।
प्रसिद्धि
रामनरेश त्रिपाठी की प्रसिद्धि
मुख्यत: इनके कवि-रूप के कारण हुई। ये ‘द्विवेदीयुग’
और‘छायावाद युग’ की
महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में आते हैं। पूर्व छायावाद युग के खड़ी बोली के कवियों
में इनका नाम बहुत आदर से लिया जाता है। इनका प्रारम्भिक कार्य-क्षेत्र राजस्थान
और इलाहाबाद रहा। इन्होंने अन्तिम जीवन सुल्तानपुर में बिताया।
रामनरेश त्रिपाठी की मृत्यु
रामनरेश त्रिपाठी ने 16 जनवरी, 1962 को अपने कर्मभूमि प्रयाग में ही अंतिम
सांस ली। पंडित त्रिपाठी के निधन के बाद आज उनके गृह जनपद में एक मात्र सभागार
स्थापित है जो उनकी स्मृतियों को ताजा करता है।
Remark:
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