Swami Vivekananda Essay In Hindiएक समान्य परिवार में जन्म लेने वाले नरेंद्रनाथ ने अपने ज्ञान तथा तेज के बल पर विवेकानंद बने। अपने कार्यों द्वारा उन्होंने विश्व भर में भारत का नाम रोशन करने का कार्य किया। यहीं कारण है कि वह आज के समय में भी लोगो के प्रेरणास्त्रोत हैं।
Swami Vivekananda Essay In Hindi
प्रारंभिक जीवन :
स्वामी जी को उनके प्रारंभिक जीवन में नरेंद्रनाथ के नाम से पहचाना जाता था। संपन्न और धार्मिक परिवार में बालक का पालन-पोषण बड़े लाड-प्यार से हुआ था। अत: यह बालक बचपन से ही हठी बन गया था। स्वामी विवेकानंद जी ने अपने काम और प्रेरणा के लिए अपनी स्वंय की आत्मा की आध्यात्मिक गहराई के साथ एक मजबूत स्पर्श से ज्ञान को प्राप्त किया।
प्रस्तावना
यह उनके व्यक्तित्व का वह पहलू था जो सभी को पोषण प्रदान करता है। उन्होंने अपने पिता से बहुत कुछ सीखा था। स्वामी जी सत्ता और धर्म को शंका की दृष्टि से देखते थे। लेकिन स्वामी जी एक जिज्ञासु प्रवृति के व्यक्ति थे।
भारत के महापुरुष – स्वामी विवेकानंद
स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में मकर संक्रांति के त्योहार के अवसर पर, परंपरागत कायस्थ बंगाली परिवार में हुआ था। स्वामी विवेकानंद का बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त (नरेन्द्र या नरेन भी कहा जाता था) था। वह अपने माता-पिता (पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता उच्च न्यायालय में वकील थे और माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक महिला थी) के 9 बच्चों में से एक थे। वह पिता के तर्कसंगत मन और माता के धार्मिक स्वभाव वाले वातावरण के अन्तर्गत सबसे प्रभावी व्यक्तित्व में विकसित हुए।
वह बाल्यकाल से ही आध्यात्मिक व्यक्ति थे और हिन्दू भगवान की मूर्तियों (भगवान शिव, हनुमान आदि) के सामने ध्यान किया करते थे। वह अपने समय के घूमने वाले सन्यासियों और भिक्षुओं से प्रभावित थे। वह बचपन में बहुत शरारती थे और अपने माता-पिता के नियंत्रण से बाहर थे। वह अपनी माता के द्वारा भूत कहे जाते थे, उनके एक कथन के अनुसार, “मैंने भगवान शिव से एक पुत्र के लिए प्रार्थना की थी और उन्होंने मुझे अपने भूतों में से एक भेज दिया।”
उन्हें 1871 (जब वह 8 साल के थे) में अध्ययन के लिए चंद्र विद्यासागर महानगर संस्था और 1879 में प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिल कराया गया। वह सामाजिक विज्ञान, दर्शन, इतिहास, धर्म, कला और साहित्य जैसे विषयों में बहुत अच्छे थे। उन्होंने पश्चिमी तर्क, यूरोपीय इतिहास, पश्चिमी दर्शन, संस्कृत शास्त्रों और बंगाली साहित्य का अध्ययन किया।
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स्वामी विवेकानंद के विचार
वह बहुत धार्मिक व्यक्ति थे हिन्दू शास्त्रों (वेद, रामायण, भगवत गीता, महाभारत, उपनिषद, पुराण आदि) में रुचि रखते थे। वह भारतीय शास्त्रीय संगीत, खेल, शारीरिक व्यायाम और अन्य क्रियाओं में भी रुचि रखते थे। उन्हें विलियम हैस्टै (महासभा संस्था के प्राचार्य) के द्वारा “नरेंद्र वास्तव में एक प्रतिभाशाली है” कहा गया था।
वह हिंदू धर्म के प्रति बहुत उत्साहित थे और हिन्दू धर्म के बारे में देश के अन्दर और बाहर दोनों जगह लोगों के बीच में नई सोच का निर्माण करने में सफल हुए। वह पश्चिम में ध्यान, योग, और आत्म-सुधार के अन्य भारतीय आध्यात्मिक रास्तों को बढ़ावा देने में सफल हो गए। वह भारत के लोगों के लिए राष्ट्रवादी आदर्श थे।
उन्होंने राष्ट्रवादी विचारों के माध्यम से कई भारतीय नेताओं का ध्यान आकर्षित किया। भारत की आध्यात्मिक जागृति के लिए श्री अरबिंद ने उनकी प्रशंसा की थी। महान हिंदू सुधारक के रुप में, जिन्होंने हिंदू धर्म को बढ़ावा दिया, महात्मा गाँधी ने भी उनकी प्रशंसा की। उनके विचारों ने लोगों को हिंदु धर्म का सही अर्थ समझाने का कार्य किया और वेदांतों और हिंदु अध्यात्म के प्रति पाश्चात्य जगत के नजरिये को भी बदला।
उनके इन्हीं कार्यों के लिए चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (स्वतंत्र भारत के प्रथम गवर्नर जनरल) ने कहा कि स्वामी विवेकानंद ही वह व्यक्ति थे, जिन्होंने हिन्दू धर्म तथा भारत को बचाया था। उन्हें सुभाष चन्द्र बोस के द्वारा “आधुनिक भारत के निर्माता” कहा गया था। उनके प्रभावी लेखन ने बहुत से भारतीय स्वतंत्रता कार्यकर्ताओं; जैसे- नेताजी सुभाष चंद्र बोस, बाल गंगाधर तिलक, अरविंद घोष, बाघा जतिन, आदि को प्रेरित किया। ऐसा कहा जाता है कि 4 जुलाई सन् 1902 में उन्होंने बेलूर मठ में तीन घंटे ध्यान साधना करते हुए अपनें प्राणों को त्याग दिया।
स्वामी रामकृष्ण परमहंसजी और स्वामी विवेकानंद (swami vivekanand per nibandh)
नरेंद्र बचपन से ही एक जिज्ञासु बालक रहा था उसके मन में हमेशा से ही एक प्रश्न था, “क्या कही ईश्वर का अस्तित्व हैं?” इसका उत्तर पाने के लिए वे कई आध्यात्मिक गुरु तथा साधु-संतों से मिले लेकिन दे सब उनका समाधान नहीं कर पाए। नरेंद्र के इसी प्रश्न का समाधान उनके सामने आया स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी के रूप में। एक मित्र के घर में इनकी मुलाकात पहली बार हुई जिससे प्रभावित होकर नरेंद्र दक्षिणेश्वर मीलों पैदल चलकर स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी से मिलने गए। जहा पर उन्होंने अपना प्रश्न दोहराया, “क्या आप ईश्वर को देखा हैं?” जिसके उत्तर मे स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी ने उनको स्पर्श कर कहा,”हाँ मैंने देखा हैं, क्या तुम भी देखोगे?” और तभी नरेंद्र को शून्य में विलीन होने का एहसास हुआ और वे संतुष्टि से चीख पड़े और स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी नरेंद्र के गुरु बन गए। कुछ ही समय में नरेंद्र उनका प्रिय शिष्य बन गया और बाद मे जब उन्होंने संन्यास लिया तो स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी के कहने पर नरेंद्र का नाम “विवेकानंद” हुआ और इसी नाम से वे दुनिया में जाने गए।
स्वामी विवेकानंद जी ने अपना पूरा जीवन अपने गुरु को समर्पित किया था। अपने गुरु के अंतिम दिनों में वे हमेशा उनकी सेवा में तत्पर रहते। स्वामी जी के अपने गुरु के ऊपर पूरी निष्ठा थी। अगर गलती से भी गुरु का किसीसे अपमान हो यह उनसे सहन नहीं हो पाता।
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स्वामी विवेकानंदजी की यात्राएँ
मात्र २५ साल की उम्र मे स्वामी विवेकानंद जी मे गेरुआ वस्त्र परिधान कर लिया। सर्वप्रथम उन्होंने भारत की पदयात्रा की। जिसके बाद ३१ मई १८९३ को अपनी दुनिया के यात्रा का आरंभ किया। जिसमें पहले उन्होंने जापान के कई शहरोंका दौरा किया और फिर वे चीन और कनाडा से होते हुए अमरीका में शिकागो की धर्म परिषद में अपना भाषण देने पहुंचे। वहाँ पर आपने भाषण के पहले ही वाक्य से वहाँ उपस्थित लोगों को प्रभावित कर वे विश्व में प्रसिद्ध हुए। इसके बाद से उन्हे कई जगह से न्योते आते रहे अगले तीन साल वे अमेरिका में कई सार्वजनिक और निजी व्याख्यानोंका आयोजन किया। अमेरिकन मीडिया मे उनके ज्ञान और वक्तृत्व-शैली से प्रभावित होकर उन्हे साइक्लॉनिक हिन्दू का नाम दिया था। भारत वापसी की यात्रा में इन्होंने यूरोप में हिंदू धर्म का प्रसार किया।
स्वामी विवेकानंदजीका संसार को योगदान
स्वामी विवेकानंद जी की मृत्यु ४ जुलाई १९०२ में मात्र उनतालीस साल की उम्र में हुई। उनके जीवन के इस अल्प काल में उन्होंने जो काम किए वे अनेक पीढ़ियों तक दुनिया को मार्गदर्शन करते रहेंगे। हिंदू धर्म को दुनिया में सार्वभौम पहचान दिलाने में उनका सबसे बड़ा योगदान हैं। गुरुदेव रबिन्द्रनाथ टागोर जी ने एक बार कहा था,” यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद (Vivekananda) को पढ़िये। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पायेंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।”
विवेकानंदजी ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की जो आज भी कार्यरत हैं। दूसरों की सेवा और परोपकार यही रामकृष्ण मिशन का असली मकसद हैं, जो की हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत में से एक हैं।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में स्वामी विवेकानंद एक प्रमुख प्रेरणस्थान में रहे हैं। वे न सिर्फ संत थे बल्कि साथ में एक सच्चे देशभक्त, कवि, लेखक, विचारक और वक्ता भी थे। नारी का सम्मान करना, आमने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित कर उसे पाने की पूरी कोशिश करना, देशवासियोंकि सेवा करना यह उनकी सबसे बड़ी शिक्षा थी।
ईश्वर प्रेम :
स्वामी जी की बुद्धि बचपन से ही बहुत तेज थी और परमात्मा को पाने की इच्छा भी उनके मन में बहुत प्रबल थी। इसी वजह से वे सबसे पहले ब्राह्मण समाज में गए थे लेकिन वहाँ पर उनके मन को संतोष नहीं हुआ। स्वामी जी ने उच्च कोटि की शिक्षा प्राप्त की थी। सन् 1884 में पिता जी के निधन के बाद उन्हें संसार से अरुचि पैदा हो गयी थी।
स्वामी जी ने रामकृष्ण परमहंसा से दीक्षा ले सन्यासी बनने की इच्छा प्रकट की। परमहंस जी ने उन्हें समझाया था कि सन्यास का सच्चा उद्देश्य मानव सेवा करना होता है। मानव सेवा से ही जीवन में मुक्ति मिल सकती है। परमहंस ने उन्हें दीक्षा दे दी और उनका नाम विवेकानंद रख दिया था।
सन्यास लेने के बाद उन्होंने सभी धर्मों के ग्रंथों का गहन अध्ययन करना शुरू कर दिया था। श्री रामकृष्ण के पैरों पर बैठकर उन्होंने गुणों को विकसित किया और उच्चतम आध्यात्मिक प्राप्ति के आदमी बन गए थे। स्वामी विवेकानंद जी अपना जीवन अपने गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस जी को अर्पित कर चुके थे।
जब गुरु देव के शरीर त्याग के दिन निकट थे तो अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत की और खुद के भोजन की परवाह न करते हुए गुरु की सेवा में हमेशा हाजिर रहे। गुरूजी का शरीर बहुत कमजोर हो गया था। कैंसर की वजह से गले से थूक, रक्त, कफ निकलता था जिसकी सफाई का स्वामी जी बहुत अधिक ध्यान रखते थे।
एक बार किसी ने गुरु देव की सेवा में नफरत और लापरवाही दिखाई और नफरत से नाक भौहें सिकोडी। यह सब कुछ देखकर स्वामी जी को गुस्सा आ गया। स्वामी जी ने उस गुरुभाई को पाठ पढ़ाते हुए और गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शाते हुए उनके सिराने पर रखी रक्त और कफ की पूरी थूकदानी को पी गये थे। गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही उन्होंने अपने शरीर और उनके आदर्शों की उत्तम सेवा की थी।
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अमेरिका में प्रचार :
यूरोप और अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत ही हीन दृष्टि से देखते थे। वहाँ के लोगों ने बहुत कोशिशें की कि स्वामी जी को सर्वधर्म सम्मेलन में बोलने का अवसर ही न मिले। एक अमेरिकन प्रोफेसर पर उन्हें थोडा समय मिला लेकिन उनके विचारों को सुनकर सभी विद्वान् हैरान रह गये।
उसके बाद अमेरिका में उनका बहुत स्वागत किया गया। वहां पर स्वामी जी के भक्तों का एक बड़ा समुदाय हो गया था। स्वामी जी तीन साल तक अमेरिका में रहे थे और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे थे। इसके बाद स्वामी जी ने बहुत से स्थानों पर व्याख्यान दिए हैं।
ऐसी अनेक संस्थाओं की स्थापना हुई जिनका उद्देश्य वेदांत का प्रचार करना था। स्वामी जी ने जापान, फ्रांस और इंग्लेंड में भी मानव धर्म का प्रचार किया था। स्वामी जी की एक शिष्या भी थी जिनका नाम निवेदिता था। उन्होंने कलकत्ता में रहकर सेवा कार्य किया था।
उपसंहार :
स्वामी विवेकानंद जी महामानव के रूप में अवतरित हुए। स्वामी जी ने प्रचार-प्रसार में जो भूमिका प्रस्तुत की है वह अतुलनीय है। स्वामी जी भारत माँ के सच्चे पुत्र थे। स्वामी जी ने भारत का गौरव बढ़ाया और संसार के समक्ष भारत की एक अनुपम तस्वीर प्रस्तुत की थी।
स्वामी जी ने सच्चे धर्म की व्याख्या करते हुए कहा था कि धर्म वह होता है जो भूखे को अन्न दे सके और दुखियों के दुखों को दूर कर सके। स्वामी विवेकानंद जी ने अपने स्पर्श के साथ दुनिया में एक गतिशील विश्व प्रेमी के रूप में गये थे। भारत के गौरव को देश-देशांतरों में उज्ज्वल करने के लिए उन्होंने हमेशा प्रयास किया था।
स्वामी जी के कार्य आज भी आदर्श और प्रेरणा के स्त्रोत हैं। कन्याकुमारी में समुद्र के बीच बना विवेकानंद स्मारक इनकी स्मृति को संजोकर रखे हुए है। स्वामी जी ज्ञान की एक ऐसी मसाल प्रज्ज्वलित कर गये जो संसार को सदैव ही आलौकित करती रहेगी।