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परिचय
स्मृति-ग्रन्थों में जीवन की रीति-नीति, करणीय-अकरणीय कर्म, इनके औचित्य-अनौचित्य एवं विधि-दण्ड का विशेष रूप से वर्णन किया गया है। प्रमुख स्मृति-ग्रन्थों की संख्या अठारह मानी जाती है। इनमें जो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्मृति-ग्रन्थ है, उसका नाम है-‘मनुस्मृति’। इसके रचयिता आदिपुरुष मनु को माना जाता है।
प्रस्तुत पाठ के श्लोक इसी मनुस्मृति से संगृहीत हैं। यह सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन के विविध पक्षों पर प्रकाश डालने वाला श्रेष्ठ ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ की उपयोगिता, प्रामाणिकता एवं तार्किकता को इस बात से समझा जा सकता है कि आजकल न्यायालयों में भी मनुस्मृति को प्रमाण मानकर व्यवहार-निर्वाह किया जाता है। इसी ग्रन्थ से विद्यार्थियों के लिए व्यवहार से सम्बन्धित नियम संकलित किये गये हैं।
पाठ-सारांश
विद्यार्थी को सूर्योदय से पूर्व ब्राह्म-मुहूर्त में उठकर धर्म, अर्थ, शरीर के कष्टों एवं वेदों के तत्त्वों पर विचार करना चाहिए। भोजन करने के उपरान्त स्नान नहीं करना चाहिए। रुग्णावस्था में, रात्रि में, वस्त्रों को पहने हुए, निरन्तर तथा अपरिचित जलाशय में कभी भी स्नान नहीं करना चाहिए। विद्यार्थी को अपना जूठा भोजन किसी को नहीं देना चाहिए। भोजन को समय पर एवं उचित मात्रा में ग्रहण करना चाहिए। भोजनोपरान्त मुँह अवश्य साफ करना चाहिए।
प्रणाम करने की आदत वाले तथा बड़ों की सेवा-शुश्रुषा करने वाले विद्यार्थी की आयु, विद्या, यश और बल बढ़ते हैं। विद्यार्थी को गीले पाँव भोजन करना चाहिए, किन्तु गीले पाँव सोना नहीं चाहिए। गीले पाँव भोजन करने से आयु बढ़ती है। विद्यार्थी को सदैव प्रिय सत्य ही बोलना चाहिए। अप्रिय सत्य और प्रिय असत्य को कभी नहीं बोलना चाहिए, यही उत्तम धर्म है। उसे चंचल हाथ-पैर, चंचल नेत्र, कठोर स्वभाव, चंचल वाणी, दूसरों से द्रोह करने वाला नहीं होना चाहिए।
सभी शुभ लक्षणों से हीन होने पर भी सदाचारी, श्रद्धावान् और दूसरों की निन्दा न करने वाला व्यक्ति सौ वर्ष तक जीवित रहता है। स्वतन्त्रता ही सुख है और परतन्त्रता दुःख है, रि.धार्थी को सुख-दु:ख को इसी परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। एकान्त चिन्तने ही कल्याणकारी होता है; अतः विद्यार्थी को अपना हितचिन्तन एकान्त में बैठकर करना चाहिए।
पद्यांशों की ससन्दर्भ हिन्दी व्याख्या
(1)
ब्राह्म मुहूर्ते बुध्येत्, धर्मार्थी चानुचिन्तयेत्
कायक्लेशांश्च तन्मूलान्, वेदतत्त्वार्थमेव च ॥ [2006]
शब्दार्थ ब्राह्म मुहूर्ते = ब्राह्म-मुहूर्त में, सूर्योदय से पूर्व 48 मिनट तक के समय को ब्राह्म-मुहूर्त कहते हैं। बुध्येत = जागना चाहिए। धर्मार्थी = धर्म और अर्थ (धन) के बारे में। अनुचिन्तयेत् = विचार करना चाहिए। कायक्लेशान् = शरीर के कष्टों को। तन्मूलान् = उनके (शारीरिक कष्ट के कारणों को। वेदतत्त्वार्थम् = वेदों के वास्तविक अर्थ को।
सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड‘पद्य-पीयूषम्’ के विद्यार्थिचर्या शीर्षक पाठ से उद्धृत है।
[ संकेत इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। ]
प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में विद्यार्थी के प्रात: उठने के उचित समय को बताया गया है।
अन्वय, (छात्रः) ब्राह्म मुहूर्ते बुध्येत धर्मार्थी च अनुचिन्तयेत्, कायक्लेशान् तन्मूलान्, वेद-तत्त्वार्थम् एव च (चिन्तयेत्)।
व्याख्या मनु का कथन है कि छात्र को ब्राह्म-मुहूर्त में अर्थात् सूर्योदय से 1 घण्टे पूर्व जागना चाहिए और धर्म तथा अर्थ के बारे में चिन्तन करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि लोक-कल्याण के लिए जितना आवश्यक धन है, परलोक कल्याण के लिए उतना ही आवश्यक धर्म भी है। साथ ही उसे अपने शारीरिक कष्टों, उनके कारणों व निवारण के उपायों तथा वेदों के सारतत्त्व के विषय में भी विचार करना चाहिए।
(2)
न स्नानमाचरेद भुक्त्वा , नातुरो न महानिशि।
न वासोभिः सहाजस्त्रं, नाविज्ञाते जलाशये ॥ [2006, 09]
शब्दार्थ आचरेत् = करना चाहिए। भुक्त्वा = भोजन करके। आतुरः = रोगी। महानिशि = अधिक रात में। वासोभिः सह = कपड़ों के साथ। अजस्त्रम् = निरन्तर, बहुत समय तक अविज्ञाते = अपरिचिता जलाशये = तालाब में।
प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में बताया गया है कि विद्यार्थी को कब, कहाँ और कैसे स्नान नहीं करना चाहिए।
अन्वय (छात्रः) भुक्त्वा स्नानं न आचरेत्, न आतुरः, न महानिशि, न वासोभिः सह अजस्रं, न अविज्ञाते जलाशये (स्नानम् आचरेत्)।
व्याख्या मनु का कथन है कि विद्यार्थी को भोजन करके स्नान नहीं करना चाहिए; न रोगी (बीमार) होने पर, न मध्य रात्रि में, न कपड़ों के साथ बहुत समय तक और न अपरिचित जलाशय में स्नान करना चाहिए।
(3)
नोच्छिष्टं कस्यचिद् दद्यान्नाद्याच्चैव तथान्तरा।
न चैवात्यशनं कुर्यान्न चोच्छिष्टः क्वचिद् व्रजेत् ॥
शब्दार्थ उच्छिष्टम् = जूठा भोजन। कस्यचित् = किसी के लिए। दद्यात् = देना चाहिए। न अद्यात् = भोजन नहीं करना चाहिए। अन्तरा = बीच में, अर्थात् भोजन के दो समयों के मध्य में या बहुत-से लोगों के मध्य। अत्यशनम् = अधिक भोजन। कुर्यात् = करना चाहिए। उच्छिष्टः = जूठे मुँहा क्वचित् = कहीं पर। व्रजेत् = जाना चाहिए।
प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में भोजन की उचित प्रक्रिया पर प्रकाश डाला गया है।
अन्वय (छात्रः) कस्यचित् उच्छिष्टं न दद्यात् अन्तरा च न एव अद्यात्। न च अति अशनं एव कुर्यात्। उच्छिष्ट: च क्वचित् न व्रजेत्।
व्याख्या मनु का कथन है कि विद्यार्थी को किसी को अपना जूठा भोजन नहीं देना चाहिए तथा भोजन के दो समयों के बीच में (अर्थात् बार-बार) या बहुत-से लोगों के बीच में भोजन नहीं करना चाहिए। उचित मात्रा से अधिक भोजन नहीं करना चाहिए। जूठे मुंह (बिना मुँह धोये) कहीं नहीं जाना चाहिए।
(4)
अभिवादनशीलस्य, नित्यं वृद्धोपसेविनः।।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते, आयुर्विद्या यशो बलम् ॥ [2006, 08,09, 10, 11, 15]
शब्दार्थ अभिवादनशीलस्य = प्रणाम करने के स्वभाव वाले की। नित्यं = प्रतिदिन। वृद्धोपसेविनः = बड़े-बूढों की सेवा करने वाले की। चत्वारि = चार चीजें। तस्य = उस (विद्यार्थी) के वर्धन्ते = बढ़ते रहते हैं।
प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में व्यावहारिक सदाचरण पर प्रकाश डालते हुए उसके महत्त्व को स्पष्ट किया गया है।
अन्वय अभिवादनशीलस्य, नित्यं वृद्धोपसेविन: तस्य आयुः विद्या यश: बलम् (एतानि) चत्वारि वर्धन्ते।
व्याख्या मनु का कथन है कि जो छात्र अपने से बड़ों को अभिवादन कर उनका आशीर्वाद लेता है, नित्य अपने बड़े-बूढ़ों की सेवा करता है, उस छात्र की आयु, विद्या, यश और बल ये चार बढ़ते रहते हैं।
(5)
आर्द्रपादस्तु भुञ्जीत, नार्दपादस्तु संविशेत्।
आर्द्रपादस्तु भुञ्जानो, दीर्घमायुरवाप्नुयात् ॥ [2008, 12]
शब्दार्थ आर्द्रपादः = गीले पाँव वाला, धोने के पश्चात् बिना पोंछे। भुञ्जीत = भोजन करना चाहिए। संविशेत् = सोना चाहिए। भुञ्जानः = भोजन करता हुआ। अवाप्नुयात् = प्राप्त करता है।
प्रसग प्रस्तुत श्लोक में दीर्घायु होने का उपाय बताया गया है।
अन्वय आर्द्रपादः तु भुजीत। आईपादः तु ने संविशेत्। आर्द्रपादः तु भुञ्जानः दीर्घम् आयुः अवाप्नुयात्।।
व्याख्या मनु का कथन है कि गीले पाँव (धोने के बाद बिना पोंछे) भोजन करना चाहिए। गीले पैर नहीं सोना चाहिए। गीले पाँव भोजन करता हुआ दीर्घ आयु को प्राप्त करता है। तात्पर्य यह है कि जहाँ भीगे हुए पैरों से भोजन करना आयुवर्द्धक होता है, वहीं भीगे पैरों शयन करना हानिकारक।
(6)
सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयान्न बूयोत्सत्यमप्रियम्।
प्रियं च नानृतं बूयादेष धर्मः सनातनः ।। [2009)
शब्दार्थ बूयात् = बोलना चाहिए। सत्यम् अप्रियम् = बुरा लगने वाला सत्य। अनृतम् = झूठ। सनातनः = सदा रहने वाला, शाश्वत।
प्रसंग इस श्लोक में अप्रिय सत्य और प्रिय असत्य न बोलने का परामर्श दिया गया है।
अन्वय सत्यं ब्रूयात्, प्रियं ब्रूयात्, अप्रियं सत्यं न ब्रूयात्, प्रियं च अनृतं न ब्रूयात् एष सनातन: धर्मः (अस्ति)।
व्याख्या मनु का कहना है कि सत्य बोलना चाहिए। प्रिय बोलना चाहिए। अप्रिय अर्थात् बुरा लगने वाला सत्य नहीं बोलना चाहिए तथा प्रिय अर्थात् अच्छा लगने वाला झूठ नहीं बोलना चाहिए। यही शाश्वत धर्म है।
(7)
न पाणिपादचपलो, न नेत्रचपलोऽनृजुः ।।
न स्याद्वाक्चपलश्चैव, न परद्रोहकर्मधीः ॥
शब्दार्थ पाणिपादचपलः = चंचल हाथ-पैर वाला। नेत्रचपलः = नेत्रों से चंचल। अनृजुः = कठोर स्वभाव वाला, कुटिल। वाक्चपलः = वाणी से चंचल। परद्रोहकर्मधीः = दूसरों के साथ द्रोह करने में बुद्धि रखने वाला।
प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में विद्यार्थी को चंचल न होने का परामर्श दिया गया है।
अन्वय (छात्रः) पाणिपादचपल: न (स्यात्)। नेत्रचपलः न (स्यात्), अनृणुः न (स्यात्), वाक्चपल: न (स्यात्), च न एवं परद्रोहकर्मधीः न स्यात्।।
व्याख्या मनु का कथन है कि छात्र को हाथ-पैरों से चंचल नहीं होना चाहिए; अर्थात् उसे अपने हाथ-पैर व्यर्थ में नहीं हिलाने चाहिए। चंचल नेत्रों वाला नहीं होना चाहिए, कुटिल स्वभाव वाला नहीं होना चाहिए, चंचल वाणी वाला नहीं होना चाहिए और न ही दूसरों से द्रोहकर्म में बुद्धि रखने वाला होना चाहिए। तात्पर्य यह है कि विद्यार्थी को कुछ भी करने, कहीं भी जाने, सब कुछ देखने और कुछ भी कहने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना चाहिए।
(8)
सर्वलक्षणहीनोऽपि, यः सदाचारवान्नरः
श्रद्दधानोऽनसूयश्च शतं वर्षाणि जीवति ॥ [2008, 11, 14]
शब्दार्थ सर्वलक्षणहीनोऽपि = सभी शुभ लक्षणों से हीन होता हुआ भी। यः सदाचारवान्नरः = जो सदाचारी व्यक्ति। श्रद्दधानः = श्रद्धा रखने वाला, श्रद्धालु। अनसूयः = निन्दा न करने वाला, ईष्र्यारहित। शतं वर्षाणि जीवति = सौ वर्षों तक जीवित रहता है।
प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सदाचारी व्यक्ति की उपलब्धि पर प्रकाश डाला गया है।
अन्वय सर्वलक्षणहीनः अपि यः नरः सदाचारवान्, श्रद्दधानः, नसूयः च (अस्ति), (स:) शतं वर्षाणि जीवति।
व्याख्या मनु का कथन है कि सभी शुभ लक्षणों से हीन होता हुआ भी जो मनुष्य सदाचारी, श्रद्धा रखने वाला और दूसरों की निन्दा न करने वाला होता है, वह सौ वर्ष तक जीवित रहता है। तात्पर्य यह है कि सदाचारी, श्रद्धालु और ईर्ष्यारहित व्यक्ति ही दीर्घायुष्य को प्राप्त करते हैं।
(9)
सर्वं परवशं दुःखं, सर्वमात्मवशं सुखम्।।
एतद्विद्यात् समासेन, लक्षणं सुख-दुःखयोः ॥ [2008, 10, 12, 14, 15]
शब्दार्थ परवशं = पराधीनता। आत्मवशम् = स्वाधीनता। विद्यात् = जानना चाहिए। समासेन = संक्षेप में। लक्षणं = पहचान। सुख-दुःखयोः = सुख और दुःख की।
प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सुख-दु:ख के लक्षणों पर प्रकाश डाला गया है।
अन्वय परवशं सर्वं दु:खम् (अस्ति)। आत्मवशं सर्वं सुखम् (अस्ति)। एतद् समासेन सुख-दु:खयोः लक्षणं विद्यात्।।
व्याख्या मनु का कथन है कि जो दूसरे के अधीन है, वह सब दुःख है। जो अपने अधीन है, वह सब सुख है। इसे संक्षेप में सुख-दु:ख का लक्षण समझना चाहिए। तात्पर्य यह है कि स्वाधीनता सबसे बड़ा सुख और पराधीनता सबसे बड़ा दुःख है।
(10)
एकाकी चिन्तयेन्नित्यं, विविक्ते हितमात्मनः।
एकाकी चिन्तयानो हि, परं श्रेयोऽधिगच्छति ॥ [2006,07, 15]
शब्दार्थ एकाकी = अकेला| चिन्तयेत् = विचार करना चाहिए। विविक्ते = एकान्त में। हितम् आत्मनः = अपनी भलाई। चिन्तयानो = विचार करने वाला। परं श्रेयः = परम कल्याण को। अधिगच्छति = प्राप्त करता है।
प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में एकान्त के महत्त्व का प्रतिपादन किया गया है।
अन्वय विविक्ते एकाकी (सन्) नित्यम् आत्मनः हितं चिन्तयेत्। हि एकाकी चिन्तयान: (पुरुष:) परं श्रेयः अधिगच्छति।।
व्याख्या मनु का कथन है कि एकान्त में अकेला होते हुए सदा अपने हित के विषय में विचार करना चाहिए; क्योंकि अकेले ही (अपने हित का) चिन्तन करने वाला पुरुष परम कल्याण की प्राप्त करता है। तात्पर्य यह है कि आत्म-कल्याण के इच्छुक व्यक्ति को चाहिए कि वह एकान्त में यह सोचे कि मेरा हित किसमें है।
सूक्तिपरक वाक्यांशों की व्याख्या
(1) ब्राह्म मुहूर्ते बुध्येत, धर्माचानुचिन्तयेत्।। [2010]
सन्दर्भ प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘विद्यार्थिचर्या’ नामक पाठ से उद्धृत है।
[ संकेत इस पाठ की शेष सभी सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]
प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में विद्यार्थी के कर्तव्य का वर्णन किया गया है।
अर्थ ब्राह्म-मुहूर्त में जागना चाहिए तथा धर्म-अर्थ के बारे में चिन्तन करना चाहिए।
व्याख्या सूर्योदय के एक घण्टे पूर्व से लेकर सूर्योदय तक का समय ब्राह्म-मुहूर्त कहलाता है। अत: इस अन्तराल में विद्यार्थी को अवश्य ही निद्रा से जाग जाना चाहिए तथा धर्म और अर्थ के बारे में विचार करना चाहिए। अर्थ से आशय धन से होता है। विद्यार्थी का धन तो विद्या ही है। अतः विद्यार्थी को प्रात:काल विद्याध्ययन या स्वाध्याय करना चाहिए। सभी विद्वान् और शिक्षाशास्त्री मानते हैं कि ब्राह्म-मुहूर्त में किया गया अध्ययन मस्तिष्क में स्थायी रूप से बस जाता है अर्थात् याद हो जाता है। विद्यार्थी के लिए धर्म का तात्पर्य नित्य-नैमित्तिक कार्य तथा ईश्वर की यथासम्भव आराधना से है। अत: प्रत्येक विद्यार्थी को सूर्योदय से पूर्व उठकर अपने धर्म-अर्थ का चिन्तन करना चाहिए।
(2) न स्नानमाचरेद् भुक्त्वा नातुरो न महानिशि। [2008, 10, 15]
प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में विद्यार्थियों के लिए स्नान सम्बन्धी कति ‘ नियमों का वर्णन किया गया है।
अर्थ भोजन करके, रुग्णावस्था में और आधी रात में स्नान नहीं करना चाहिए।
व्याख्या स्वस्थ और नीरोग रहने के लिए व्यक्ति को भोजन करके स्नान नहीं करना चाहिए। इसका कारण यह है कि भोजन को पचाने के लिए जिस पाचन-अग्नि की आवश्यकता होती है, वह स्नान करने के उपरान्त मन्द पड़ जाती है, जिससे भोजन ठीक से नहीं पच पाता और व्यक्ति क्रमश: अस्वस्थ होता जाता है। रुग्णावस्था में स्नान करने पर व्यक्ति की बीमारी और अधिक भयंकर स्थिति में पहुँचकर उसके लिए प्राणघातक हो सकती है। इसी कारण अर्द्ध-रात्रि या मध्यरात्रि में किया गया स्नान भी व्यक्ति के लिए हानिकारक ही होता है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि विद्यार्थी को सदैव भोजन से पूर्व स्नान करना चाहिए, रोगग्रस्त होने पर रोग की अवस्था के अनुसार ही स्नान करना चाहिए और अर्द्ध-रात्रि में स्नान से बचना चाहिए।
(3) अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में व्यक्ति को अभिवादनशील एवं वृद्ध-सेवी होने का परामर्श दिया गया है।
अर्थ अभिवादनशील और प्रतिदिन वृद्धों की सेवा करने वाले की आयु, विद्या, यश और बल बढ़ते हैं।
व्याख्या जो लोग अपने से बड़ों का नम्रतापूर्वक अभिवादन करते हैं और वृद्धों की नियमित रूप से सेवा करते हैं, उन लोगों की आयु, विद्या, यश और बल बढ़ते हैं। इसका कारण यह है कि जो लोग ऐसा करते हैं, उनके साथ बड़ों के आशीर्वाद और शुभकामनाएँ सम्मिलित होती हैं और सच्चे मन से दिये गये आशीर्वाद अवश्य फलीभूत होते हैं; अतः व्यक्ति को अपने से बड़ों का अभिवादन और वृद्धों की सेवा तन-मन से करनी चाहिए।
(4)
चत्वारि तस्य वर्द्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्। [2006,07] |
आयुर्विद्या यशो बलम्। [2012, 14, 15]
प्रसंग यहाँ अभिवादनशीलता और बड़े-बूढ़ों की सेवा को सर्वांगीण उन्नति का साधन बताया गया है।
अर्थ उसकी (अभिवादनशील और प्रतिदिन वृद्धों की सेवा करने वाले की) आयु, विद्या, यश और बल चारों बढ़ते हैं।
व्याख्या बड़ों का आदर-सत्कार करने और नित्य-प्रति सेवा करने वाले व्यक्ति की आयु, विद्या, यश और बल ये चारों बढ़ते हैं; क्योंकि इन गुणों से युक्त व्यक्ति की सर्वत्र प्रशंसा होती है, जिससे वह मरकर भी जीवित रहता है। गुरुजनों की कृपा होने पर व्यक्ति विद्या में निपुण हो जाता है और गुरुजनों; अर्थात् अपने से बड़ों का आदर करना विनम्रता का द्योतक है। विपत्ति में ऐसे व्यक्ति की सभी सहायता करते हैं। वस्तुतः हम महानता के समीप तभी होते हैं जब हम विनम्र होते हैं। विनम्रता बड़ों के प्रति कर्तव्य है, बराबर वालों के प्रति विनयसूचक है और छोटों के प्रति कुलीनता की द्योतक है।
(5)
सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात्सत्यमप्रियम्। [2006]
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् ।। [2007, 11, 12]
प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में प्रिय सत्य बोलने पर बल दिया गया है।
अर्थ सत्य बोलना चाहिए, प्रिय बोलना चाहिए परन्तु अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए।
व्याख्या मनुष्य को सदा सत्य बोलना चाहिए। सत्य बोलने के साथ-साथ उसे ऐसा वचन भी बोलना चाहिए, जो सुनने वालों को प्रिय लगे। यदि कोई बात सत्य है, लेकिन सुनने वाले को वह बुरी लगती है तो उसे भी नहीं बोलना चाहिए; जैसे किसी काने व्यक्ति को ‘काना’ कहकर पुकारा जाए तो यह बात सत्य तो है, लेकिन उसके लिए अप्रिय है। अतः सत्य होते हुए भी अप्रिय होने के कारण ऐसा नहीं कहना चाहिए।
(6), श्रद्दधानोऽनसूयश्च शतं वर्षाणि जीवति [2007]
प्रसग प्रस्तुत सूक्ति में मनुष्य के दीर्घायु होने के कारणों पर प्रकाश डाला गया है।
अर्थ श्रद्धा रखने वाला, निन्दा न करने वाला व्यक्ति सौ वर्षों तक जीवित रहता है।
व्याख्या मनु जी कहते हैं कि जो व्यक्ति श्रद्धेय लोगों और वस्तुओं के प्रति श्रद्धा रखता है और दूसरे लोगों की निन्दा नहीं करता है, वह संसार में कम-से-कम सौ वर्ष तक जीवित रहता है। यहाँ पर जीवित रहने से आशय उसका यश निरन्तर चलते रहने से है; क्योंकि व्यक्ति के जीवन का उद्देश्य सद्कर्मों के द्वारा युगों-युगों तक चलते रहने वाले यश की प्राप्ति करना है। श्रद्धावान् और दूसरों की निन्दा न करने वाला व्यक्ति उस यश को प्राप्त कर लेता है; क्योंकि इन गुणों से युक व्यक्ति का लोग मरने के पश्चात् भी युगों-युगों तक स्मरण करते हैं। इस प्रकार व्यक्ति मरणोपरान्त भी जीवित रहता है।
(7)
सर्वं परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम्।। [2006,09, 11, 12, 14]
सर्वं परवशं दुःखं। [2013]
एतद् विद्यात् समासेन, लक्षणं सुखदुःखयोः ॥
प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में स्वतन्त्रता के महत्त्व को बताया गया है।
अर्थ पराधीनता सबसे बड़ा दु:ख है तथा स्वाधीनता सबसे बड़ा सुख।
व्याख्या महर्षि मनु ने संक्षेप में सुख और दुःख का लक्षण बताते हुए कहा है कि पराधीनता से बढ़कर दुःख नहीं है और स्वाधीनता से बढ़कर सुख नहीं है। तोता सोने के पिंजरे में रहकर भी परवश होने से दुःखी रहता है और मुक्त हो जाने पर सुखी हो जाता है। पराधीनता में मनुष्य मन के अनुकूल कार्य नहीं कर पाता; जिससे वह दुःखी रहता है। स्वाधीनता में वह अपने मन के अनुकूल कार्य करके सुखी रहता है। निश्चित ही बन्धन में कोई सुख नहीं है। स्वाधीन रहने पर ही सुख की प्राप्ति हो सकती है। तुलसीदास जी ने भी कहा है-‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं।’ इसी को संक्षेप में सुख और दुःख का लक्षण जानना चाहिए अर्थात् सुख को स्वाधीनता का तथा दुःख को पराधीनता का।
(8)
एकाकी चिन्तयानो हि परं श्रेयोऽधिगच्छति। [2007,08,09, 10, 14]
पॅरं श्रेयोधिगच्छति।।
प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में एकान्त के महत्त्व का प्रतिपादन किया गया है।
अर्थ निश्चय ही अकेला मनुष्य चिन्तन करने पर परम कल्याण को प्राप्त करता है।
व्याख्या मनुष्य को एकान्त में बैठकर अपना हित सोचना चाहिए। जो व्यक्ति एकान्त में बैठकर अपना हित सोचता है, वह परम कल्याण को प्राप्त करता है; क्योंकि एकान्त में बैठने से एकाग्रता होती है और एकाग्र होकर ही कोई व्यक्ति ध्यानपूर्वक सोच सकता है। एकान्त में बैठने से व्यक्ति के ऊपर बाहरी वातावरण का प्रभाव नहीं पड़ता, जिससे उसे किसी प्रकार के दबाव का सामना नहीं करना पड़ता; फलतः उचित निर्णय लेना आसान हो जाता है। इसीलिए कहा गया है कि व्यक्ति को अपने सम्बन्ध में चिन्तन एकान्त में ही करना चाहिए।
श्लोक का संस्कृत-अर्थ
(1) ब्राह्म मुहूर्ते …………………………………………… वेदतत्त्वार्थमेव च ॥ [2014]
संस्कृतार्थः स्मृतिकारः मनुः कथयति यत् छात्र: प्रात:काले ब्राह्म मुहूर्ते बुध्येत्, धर्मान् अर्थान् च अनुचिन्तयेत्। कायस्य क्लेशान् तन्मूलान्, तत् निवारणोपायान्, वेदस्य तत्त्वानाम् अर्थस्य च चिन्तयेत्।।
(2) न स्नानमाचरेद …………………………………………… नाविज्ञाते जलाशये॥ [2006, 10, 13]
संस्कृतार्थः स्मृतिकारः मनुः कथयति यत् छात्र: भोजनं कृत्वा कदापि स्नानं ने आचरेत्। आतुरोऽपि, दीर्घ निशायाम् अपि, वस्त्राणि परिधायापि, अविज्ञाते सरोवरे स्नानं कदापि न आचरेत्।
(3) नोच्छिष्टं कस्यचिद् …………………………………………… क्वचिद् व्रजेत् ॥ [2007, 09]
संस्कृतार्थः स्मृतिकारः मनुः कथयति यत् विद्यार्थी कस्यचित् उच्छिष्टं भोजनं न दद्यात्, नैव द्वौ भोजनस्य मध्ये भोजनं कुर्यात्, अत्यधिक भोजनं न कुर्यात्, नापि उच्छिष्टः मुखात् क्वचित् गच्छेत्।।
(4) अभिवादनशीलस्य …………………………………………… यशो बलम् ॥ [2010, 11, 12, 13, 14, 15]
संस्कृतार्थः स्मृतिकारः अभिवादनशीलतायाः वृद्ध-सेवायाः च लाभं वर्णयति यत् यस्य स्वभाव: स्वपूज्यानाम् अभिवादनम् अस्ति, यः सदा वृद्धानां सेवां करोति, तस्य जनस्य आयुः, विद्या, यशः शक्तिः च इति चत्वारि वस्तूनि वृद्धि लभन्ते।
(5) आर्दपादस्तु भुञ्जीत …………………………………………… दीर्घमायुरवाप्नुयात् ॥ (2006, 11]
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके चरण-प्रक्षालनस्य नियमानां र्णनम् : प्त–जलेन चरणौ प्रक्षाल्य आर्द्रपाद एव भोजनं कुर्यात्, परम् आर्द्राभ्यां पादाभ्यां शयनं न कुर्यात्। यः जनः जलेन चरणौ प्रक्षाल्य आर्द्रपादः भोजनं करोति सः दीर्घम् आयुः प्राप्नोति।।
(6) सत्यं ब्रूयात्प्रियं …………………………………………… धर्मः सनातनः ॥ [2006, 13]
संस्कृतार्थः महर्षिः मनुः सत्यभाषणस्य विषये नियमं कथयति यत् मनुष्यः सदा सत्यं वदेत्। सदा प्रियं वदेत्। तादृशं सत्यं न वदेत् यत् कस्यापि अप्रियं कटु च अस्ति। तादृशं प्रियम् अपि न वदेत् यत् सत्यं न अस्ति। इत्थं प्रकारेण सत्यं-प्रियं-भाषणं सर्वेषां समीचीनः धर्मः अस्ति।
(7) न पाणिपादचपलो …………………………………………… परद्रोहकर्मधीः ॥
संस्कृतार्थः स्मृतिकारः मनुः कथयति यत् विद्यार्थी हस्त–पादयोः चापल्यं न कुर्यात्, इत्यमेव अनृजुः सन् वाक्चापल्यमपि न कुर्यात्। परेषां द्रोहकर्मणि बुद्धिः अपि न कुर्यात्।
(8) सर्वलक्षणहीनोऽपि …………………………………………… वर्षाणि जीवति॥ [2008, 09, 10, 12, 13]
संस्कृतार्थः मनुः महाराजः कथयति यत् यः नरः सर्वलक्षणैः हीनः अस्ति, परञ्च सदाचारयुक्तः, श्रद्धायुक्तः, ईष्र्यारहितः च अस्ति, सः शतं संवत्सराणि जीवति।।
(9) सर्वं परवशं दुःखं, …………………………………………… सुखदुःखयोः ॥ [2006, 08, 10, 12, 14]
संस्कृतार्थः स्मृतिकारः मनुः कथयति-अस्मिन् संसारे यदपि पराधीनम् अस्ति, तत्सर्वं दु:खस्वरूपम् अस्ति। यत् स्वाधीनम् अस्ति, तत्सर्वं सुखस्वरूपम् अस्ति। पराधीनतां दुःखस्य स्वाधीनतां च सुखस्य सङ्क्षेपेणलक्षणं जानीयात्।।
(10) एकाकी चिन्तयेन्नित्यं …………………………………………… श्रेयोऽधिगच्छति। [2006, 09, 14]
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके एकान्तचिन्तनस्य महत्त्वं प्रदर्शितम् यत् प्रत्येक मानवा: एकान्तस्थले स्थित्वा प्रतिदिनं स्वहिताय चिन्तनं कुर्यात्। य: मानव: नित्यप्रति एकाकी भूत्वा स्वहितकारिणं विषयं प्रति चिन्तयति.य: सर्वथा स्वकल्याणं प्राप्नोति।
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