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परिचय
महाकवि अश्वघोष मूलत: बौद्ध दार्शनिक थे। बौद्ध भिक्षु होने के कारण इन्हें आर्य भदन्त भी कहा जाता है। ये कनिष्क के समकालीन और साकेत के निवासी थे। इनकी माता का नाम सुवर्णाक्षी था। अश्वघोष के दो महाकाव्यों—बुद्धचरितम् और सौन्दरनन्द के साथ खण्डित अवस्था में एक नाटक-शारिपुत्रप्रकरण–भी प्राप्त होता है। इनके वर्णन स्वाभाविक हैं। इनके काव्यों की भाषा सरल और प्रवाहपूर्ण है तथा शैली वैदर्भी है।
प्रस्तुत पाठ के श्लोक महाकवि अश्वघोष द्वारा विचित ‘बुद्धचरितम्’ महाकाव्य के तृतीय और पञ्चम सर्ग से संगृहीत हैं। इनमें विहार के लिए निकले हुए सिद्धार्थ के मन में दृढ़ वैराग्य के उदय होने का संक्षिप्त वर्णन है।
पाठ-सारांश
एक बार कुमार सिद्धार्थ अपने पिता से आज्ञा लेकर रथ पर बैठकर नगर-भ्रमण के लिए निकले। उन्होंने मार्ग में श्वेत केशों वाले, लाठी का सहारा लेकर चलने वाले, ढीले और इसे अंगों वाले एक वृद्ध पुरुष को देखा। सारथी से पूछने पर उसने बताया कि बुढ़ापा समयानुसार सभी को अता है, आपको भी आएगा। इसके बाद सिद्धार्थ ने मोटे पेट वाले, साँस चलने के कारण काँपते, झुके कन्धे और कृश शरीर वाले तथा दूसरे को सहारा लेकर चलते हुए एक रोगी को देखा। पूछने पर सारथी ने बताया कि इसको धातु विकार से उत्पन्न रोग बढ़ गया है। यह रोग इन्द्र को भी शक्तिहीन बना सकता है। इसके बाद सिद्धार्थ ने बुद्धि, इन्द्रिय, प्राण और गुणों द्वारा वियुक्त हुए, महानिद्रा में सोये हुए, चेतनारहित, कफन ढककर चार पुरुषों के द्वारा ले जाए जाते हुए एक मृत मनुष्य को देखा। उनकी जिज्ञासा को शान्त करते हुए सारथी ने बताया कि यह मृत्यु सभी मनुष्यों का विनाश करने वाली है। अधम, मध्यम या उत्तम सभी मनुष्यों की मृत्यु निश्चित ही होती है।
वृद्ध, रोगी और मृतक को देखकर सिद्धार्थ का मद तत्क्षण लुप्त हो गया। इसके बाद सिद्धार्थ को एक अदृश्य पुरुष भिक्षु वेश में दिखाई पड़ा। पूछने पर उसने बताया कि मैंने जन्म-मृत्यु पर विजय प्राप्त करने और मोक्ष प्राप्त करने के लिए संन्यास ग्रहण कर लिया है और इसे क्षणिक संसार में मैं अक्षय पद को ढूंढ़ रहा हूँ। भिक्षु के पक्षी के समान आकाश-मार्ग में चले जाने पर सिद्धार्थ ने भी अभिनिष्क्रमण के लिए निश्चय कर लिया।
पद्यांशों की ससन्दर्भ हिन्दी व्याख्या
(1)
ततः कुमारो जरयाभिभूतं, दृष्ट्वा नरेभ्यः पृथगाकृतिं तम्।
उवाच सङ्ग्राहकमागतास्थस्तत्रैव निष्कम्पनिविष्टदृष्टिः॥
शब्दार्थ ततः = तदनन्तर इसके बाद। कुमारः = राजकुमार सिद्धार्थ ने। जरयाभिभूतम् = बुढ़ापे से आक्रान्त। दृष्ट्वा = देखकर पृथगाकृतिम् = भिन्न आकृति वाले को। तम् = उस वृद्ध को। उवाचे = कहा। सङ्ग्राहकम् = घोड़े की लगाम पकड़ने वाले से, सारथी से। आगतास्थः = उत्पन्न विचारों वाला। तत्र = उस (वृद्ध) पर। निष्कम्पनिविष्टदृष्टिः = दृष्टि को बिना हिलाये अर्थात् गड़ाये हुए।
सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के सिद्धार्थस्य निर्वेदः’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।
[ संकेत इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। ]
प्रसंग इस श्लोक में पिता की आज्ञा से नगर-विहार को निकले हुए सिद्धार्थ द्वारा एक वृद्ध पुरुष को देखकर सारथी से प्रश्न पूछने का वर्णन है।
अन्वय ततः कुमारः जरयाभिभूतं नरेभ्यः पृथगाकृतिं तं दृष्ट्वा आगतास्थः तत्र एव निष्कम्पनिविष्टदृष्टिः (सन्) सङ्ग्राहकम् उवाच।।
व्याख्या (रथ पर चढ़कर नगर-विहार के लिए निकलने के बाद) कुमार सिद्धार्थ ने बुढ़ापे से आक्रान्त, अन्य मनुष्यों से भिन्न आकार वाले उस वृद्ध पुरुष को देखकर उत्पन्न विचारों वाले, उसी वृद्ध पुरुष पर एकटक दृष्टि लगाये हुए अपने सारथी से कहा। तात्पर्य यह है कि नगर-विहार पर निकलने से पूर्व तक कुमार सिद्धार्थ ने केवल युवा पुरुष और युवतियों को ही देखा था। इसीलिए उस वृद्ध पुरुष को देखकर उनके नेत्र उस पर स्थिर हो गये।
(2)
क एष भोः सूत नरोऽभ्युपेतः, केशैः सितैर्यष्टिविषक्तहस्तः
भूसंवृताक्षः शिथिलानताङ्गः किं विक्रियैषा प्रकृतिर्यदृच्छा ॥
शब्दर्थ कः = कौन। एषः = यह। भोः सूत = हे सारथि!| नरः = मनुष्य, आदमी। अभ्युपेतः = सामने आया हुआ। केशैः = बालों वाला। सितैः = सफेद। यष्टिविषक्तहस्तः = लाठी पर हाथ टिकाये हुए। भूसंवृताक्षः = भौंहों से ढकी हुई आँखों वाला। शिथिलानताङ्ग = ढीले और झुके हुए अंगों वाला। किं = क्या। विक्रिया एषा= यह परिवर्तन| प्रकृतिः = स्वाभाविक स्थिति। यदृच्छा = संयोग।
प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सिद्धार्थ द्वारा वृद्ध पुरुष को देखकर सारथी से पूछे जाने का वर्णन है।
अन्वये भोः सूत! सितैः केशैः (युक्तः), यष्टिविषक्तहस्तः, भूसंवृताक्षः, शिथिलानताङ्ग अभ्युपेतः एषः नरः कः (अस्ति)। किम् एषा विक्रिया (अस्ति) (वा) प्रकृतिः यदृच्छा (अस्ति)।
व्याख्या हे सारथि! सफेद बालों से युक्त, लाठी पर टिके हुए हाथ वाला, भौंहों से ढके हुए नेत्रों वाला, ढीले और झुके हुए अंगों वाला, सामने आया हुआ यह मनुष्य कौन है? क्या यह विकार है अथवा स्वाभाविक रूप है अथवा यह कोई संयोग है?
(3)
रूपस्य हर्जी व्यसनं बलस्य, शोकस्य योनिर्निधनं रतीनाम्।
नाशः स्मृतीनां रिपुरिन्द्रियाणामेषा जरा नाम ययैष भग्नः ॥ [2009, 13]
शब्दार्थ रूपस्य = रूप का। हर्जी = हरण या विनाश करने वाली। व्यसनम् = संकट या विनाश। बलस्य = बल का। शोकस्य = शोक का। योनिः = जन्म देने वाली मूल कारण निधनम् = विनाशका रतीनाम् = काम-सुखों को। स्मृतीनां = स्मृति को। रिपुः = शत्रु। इन्द्रियाणां = इन्द्रियों को। जरा = बुढापा। यया= जिससे एषः = यह। भग्नः = टूट गया है। प्रसंग सिद्धार्थ के वृद्ध पुरुष के बारे में प्रश्न करने पर सारथी उत्तर देता है।
अन्वय (सारथिः उवाच) एषा रूपस्य हर्जी, बलस्य व्यसनम्, शोकस्य योनिः, रतीनां निधनं, स्मृतीनां नाशः, इन्द्रियाणां रिपुः जरा नाम (अस्ति)। यया एष (नरः) भग्नः।
व्याख्या सारथी ने उत्तर दिया कि यह रूप का विनाश करने वाला, बल के लिए संकटस्वरूप, दु:ख की उत्पत्ति का मूल कारण, काम-सुखों को समाप्त करने वाला, स्मृति को नष्ट करने वाला, इन्द्रियों का शत्रु बुढ़ापा है, जिसके द्वारा यह पुरुष टूट गया है।
(4)
पीतं ह्यनेनापि पयः शिशुत्वे, कालेन भूयः परिमृष्टमुव्र्याम् ।
क्रमेण भूत्वा च युवा वपुष्मान्, क्रमेण तेनैव जरामुपेतः ॥
शब्दार्थ पीतं = पिया गया है। हि = निश्चय ही। अनेन अपि = इसके द्वारा भी। पयः = दूध। शिशुत्वे = बचपन में। कालेन = समय के अनुसार। भूयः = फिर। परिमृष्टम् = लोट लगायी है। उम् = भूमि पर, पृथ्वी पर। क्रमेण = क्रम के अनुसार। भूत्वा = होकर, बनकर। वपुष्मान् = सुन्दर शरीर वाला। तेन = उस। एव = ही। जराम् उपेतः = बुढ़ापे को प्राप्त हुआ।
प्रसंग सारथी राजकुमार को समझा रहा है कि इस वृद्ध ने एक निश्चित क्रम के अनुसार ही यह अवस्था प्राप्त की है।
अन्वय हि अनेन अपि शिशुत्वे पयः पीतम्, कालेन उ भूयः परिमृष्टं क्रमेण च युवा वपुष्मान् भूत्वा तेन एवं क्रमेण जराम् उपेतः।
व्याख्या निश्चय ही इसने भी बचपन में दूध पीया है, समय के अनुसार पृथ्वी पर लोट लगायी है और क्रम से सुन्दर शरीर वाला युवा होकर उसी क्रम में बुढ़ापे को प्राप्त किया है। तात्पर्य यह है कि इस (वृद्ध) की ऐसी अवस्था अकस्मात् ही नहीं हो गयी है, वरन् एक निश्चित क्रम-जन्म, बाल्यावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था, अधेड़ावस्था, वृद्धावस्था के अनुसार हुई है।
(5)
आयुष्मतोऽप्येष वयोऽपकर्षों, नि:संशयं कालवशेन भावी।
श्रुत्वा जरामुविविजे महात्मा महाशनेर्दोषमिवान्तिके गौः ॥
शब्दार्थ आयुष्मतः = चिरञ्जीवी आपको। अपि = भी। एष = यह। वयः अपकर्षः = अवस्था का हास। निःसंशयम्= निःसन्देह, निश्चित रूप से कालवशेन= समय के अनुसार भावी = होगा। श्रुत्वा = सुनकर। जराम् = वृद्धावस्था को। उद्विविजे = उद्विग्न हो गये। महाशनेः = महान् वज्र के। घोषम् = शब्द को। इव = समान, तरह। अन्तिके = पास में।
प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में वृद्धावस्था की निश्चितता के बारे में जानने पर सिद्धार्थ की उद्विग्नता का वर्णन किया गया है।
अन्वय एषः वयोऽपकर्षः कालवशेन आयुष्मतः अपि नि:संशयं भावी। महात्मा जरां श्रुत्वा अन्तिके महाशनेः घोषं (श्रुत्वा) गौः इव उद्विविजे।
व्याख्या सारथि कुमार सिद्धार्थ से कहता है कि यह अवस्था का ह्रास भी समय के कारण दीर्घ आयु वाले आपको भी नि:सन्देह होगा। इस प्रकार वह महान् आत्मा वाले कुमार सिद्धार्थ बुढ़ापे के विषय में सुनकर; पास में महान् वज्र की ध्वनि को सुनने वाली; गाय के समान उद्विग्न हो गये।
(6)
अथापरं व्याधिपरीतदेहं, त एव देवाः ससृजुर्मनुष्यम्।
दृष्ट्वा च तं सारथिमाबभाषे, शौद्धोदनिस्तद्गतदृष्टिरेव॥
शब्दार्थ अथ = इसके बाद। अपरम्= दूसरे व्याधिपरीतदेहम् = रोग से व्याप्त शरीर वाले। ते एव देवाः = उन देवताओं ने ही। ससृजुः = रचना कर दी। दृष्ट्वा = देखकर। च= और म्= उसको। सारथिम् = सारथी से। आबभाषे = बोला। शौद्धोदनिः = शुद्धोदन की पुत्र, सिद्धार्थ। तद्गत दृष्टिः = उसी पर दृष्टि लगाये हुए।
प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सिद्धार्थ के द्वारा एक रोगी को देखकर उसके बारे में सारथी से प्रश्न पूछने का वर्णन है।
अन्वय अथ ते एव देवाः अपरं मनुष्यं व्याधिपरीतदेहं ससृजुः। तं च दृष्ट्वा शौद्धोदनि: तद्गतदृष्टिः एव सारथिम् आबभाषे।।
व्याख्या इसके बाद उन्हीं देवताओं ने दूसरे मनुष्य को रोग से व्याप्त शरीर वाला रच दिया। उस (रोगी) को देखकर राजा शुद्धोदन के पुत्र सिद्धार्थ ने उसी पर टकटकी लगाये हुए ही सारथी से कहा।
(7)
स्थूलोदर-श्वासचलच्छरीरः, स्वस्तांसबाहुः कृशपाण्डुगात्रः।
अम्बेति वाचं करुणं बुवाणः, परं समाश्लिष्य नरः क एषः ॥
शब्दार्थ स्थूलोदरः = मोटे पेट वाला; निकले हुए पेट वाला। श्वासचलच्छरीरः = साँस लेने से हिलते (काँपते) हुए शरीर वाला। स्वस्तांसबाहुः = ढीले कन्धे और भुजा वाला| कृशपाण्डुगात्रः = दुर्बल और पीले शरीर वाला। अम्बेति वाचं =’हाय माता’ इस प्रकार के वचन को। करुणम् = करुणापूर्वका बुवाणः = बोलता हुआ। परं = दूसरे से। समाश्लिष्य = लिपटकर, सहारा लेकर
प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में रोगी के सम्बन्ध में जिज्ञासु सिद्धार्थ द्वारा सारथी से प्रश्न पूछा गया है।
अन्वय (सिद्धार्थः सारथिम् अपृच्छत्) स्थूलोदरः, श्वासचलच्छरीरः, स्रस्तांसबाहुः, कृश-पाण्डुगात्रः, परं समाश्लिष्य ‘अम्ब’ इति करुणं वाचं ब्रुवाणः एषः नरः कः (अस्ति)?
व्याख्या सिद्धार्थ ने सारथी से पूछा कि मोटे पेट वाला, साँस लेने से काँपते हुए शरीर वाला, झुके हुए ढीले कन्धे और भुजा वाला, दुर्बल और पीले शरीर वाला, दूसरे का सहारा लेकर ‘हाय माता!’ इस प्रकार के करुणापूर्ण वचन कहता हुआ यह मनुष्य कौन है?
(8)
ततोऽब्रवीत् सारथिरस्य सौम्य!, धातुप्रकोपप्रभवः प्रवृद्धः।
रोगाभिधानः सुमहाननर्थः, शक्रोऽपि येनैष कृतोऽस्वतन्त्रः॥
शब्दार्थ ततः = इसके बाद अब्रवीत् = कहा। सारथिरस्य (सारथिः + अस्य) = इसके (सिद्धार्थ) सारथी ने। सौम्यः = हे सौम्य!, हे भद्र!| धातुप्रकोपप्रभवः = वात, पित्त, कफ आदि धातुओं की विषमता के कारण उत्पन्न।प्रवृद्धः = बढ़ा हुआ। रोगाभिधानः = रोग नामका सुमहान् अनर्थः = बहुत बड़ा अनिष्ट शक्रोऽपि = इन्द्र भी। येन = जिस रोग से। एष = यहा कृत = किया गया। अस्वतन्त्रः = पराधीन।
प्रसग प्रस्तुत श्लोक में सारथी सिद्धार्थ को रोगी के विषय में बता रही है।
अन्वय ततः सारथिः अब्रवीत्-सौम्य! अस्य धातुप्रकोपप्रभवः रोगाभिधानः (नाम) सुमहान् अनर्थः प्रवृद्धः येन एष शक्रः अपि अस्वतन्त्रः कृतः।।
व्याख्या इसके बाद सारथी ने कहा–हे सौम्य इसका वात, पित्त, कफ आदि धातुओं की विषमता के कारण उत्पन्न हुआ रोग नाम का अत्यन्त बड़ा संकट बढ़ गया है, जिसने इस इन्द्र को भी पराधीन कर दिया है। तात्पर्य यह है कि धातुओं (वात-पित्त-कफ) की विषमता या सामंजस्य बिगड़ जाने के कारण रोग के उत्पन्न हो जाने पर इन्द्र जैसे महान् बलशाली को भी दूसरों का सहारा लेने के लिए विवश होना पड़ता है।
(9)
अथाब्रवीद् राजसुतः स सूतं, नरैश्चतुर्भिर्हियते क एषः ?
दीनैर्मनुष्यैरनुगम्यमानो, यो भूषितोऽश्वास्यवरुध्यते च ॥
शब्दार्थ अथ = इसके बाद। अब्रवीत् = कहा। राजसुतः = राजकुमार (सिद्धार्थ) ने। सः = वह, उस। सूतं = सारथी को। नरैश्चतुर्भिः = चार मनुष्यों के द्वारा। ह्रियते = ले जाया जा रहा है। दीनैः मनुष्यैः = दीन-हीन या दुःखी मनुष्यों के द्वारा। अनुगम्यमानः = अनुगमन किया जाता है। यः = जो भूषितः = फूलमालाओं और चन्दन आदि से सजाया गया। अश्वासी = श्वास-विहीन अवरुध्यते च = और (कफन से) ढका जा रहा है, बाँधा गया
प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सिद्धार्थ एक अरथी को ले जाये जाते हुए देखकर उसके विषय में सारथि से पूछते हैं।
अन्वय अथ स: राजसुतः सूतम् अब्रवीत्-(हे सूत!) यः भूषितः अश्वासी अवरुध्यते च। दीनै: मनुष्यैः अनुगम्यमाने एषः कः चतुर्भिः नरैः हियते।
व्याख्या इसके पश्चात् उस राजकुमार ने सारथि से कहा–हे सारथि! जो चन्दन और फूलमालाओं आदि से सजाया गया, श्वासविहीन और (कफन से) ढका हुआ है, दीन-दु:खी लोगों के द्वारा अनुगमन किया जाता हुआ यह कौन चार आदमियों के द्वारा ले जाया जा रहा है?
(10)
बुद्धीन्द्रियप्राणगुणैर्वियुक्तः, सुप्तो विसञ्जस्तृणकाष्ठभूतः।
सम्बध्य संरक्ष्य च यत्नवद्भिः , प्रियाप्रियैस्त्यज्यते एष कोऽपि ॥
शब्दार्थ बुद्धीन्द्रियप्राणगुणैः = बुद्धि, इन्द्रिय, प्राणों और गुणों से। वियुक्तः = अलग हुआ। सुप्तः = (सदा के लिए) सोया हुआ। विसञ्जः = संज्ञाहीना तृणकाष्ठभूतः = तिनके और लकड़ी के समान हुआ अर्थात् निर्जीव। सम्बध्य = अच्छी तरह बाँधकर। संरक्ष्य = सुरक्षित करके च = और यत्नवद्भिः = प्रयत्न करने वाले, प्रयत्नशीला प्रियाप्रियैः = प्रिय और अप्रिय सबके द्वारा। त्यज्यते = (सदा के लिए) छोड़ा जा रहा है।
प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सारथि मृतक व्यक्ति के विषय में सिद्धार्थ को बता रहा है।
अन्वय बुद्धीन्द्रियप्राणगुणैः वियुक्तः, सुप्तः, विसञ्ज्ञः, तृणकाष्ठभूतः एष कोऽपि यत्नवद्भिः प्रियाप्रियैः सम्बध्य संरक्ष्य च त्यज्यते।
व्याख्या सारथि ने उत्तर दिया कि हे कुमार! बुद्धि, इन्द्रियों, प्राणों और गुणों से बिछुड़ा हुआ महानिन्द्रा में सोया हुआ, चेतना से शून्य, तृण और काष्ठ के समान निर्जीव, यह कोई (मृत मनुष्य) यत्न करने वाले प्रिय और अप्रिय लोगों के द्वारा अच्छी तरह बाँधकर और भली-भाँति रक्षा करके (सदा के लिए) छोड़ा जा रहा है।
(11)
ततः प्रणेता वदति स्म तस्मै, सर्वप्रजानामयमन्तकर्ता।
हीनस्य मध्यस्य महात्मनो वा, सर्वस्य लोके नियतो विनाशः ॥ (2012, 14]
शब्दार्थ प्रणेता = रथ हाँकने वाला सारथी। वदति स्म = कहा। तस्मै = उससे (सिद्धार्थ से)। सर्वप्रजानाम् = सभी प्रजाओं का; अर्थात् जो जन्मे हैं उन सबका। अयम् = यह; अर्थात् मृत्यु या काल। अन्तकर्ता = अन्त करने वाला। हीनस्य = छोटे स्तर वाले का। मध्यस्य= मध्यम स्तर वाले का। महात्मनः वा = या उत्तम स्तर वाले का। सर्वस्य लोके = संसार में सभी का। नियतः विनाशः = विनाश या मृत्यु निश्चित है।
प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सारथी मृत्यु की अवश्यम्भाविता के विषय में सिद्धार्थ को बता रहा है।
अन्वय ततः प्रणेता तस्मै वदति स्म–अयं सर्वप्रजानाम् अन्तकर्ता (अस्ति)। लोके हीनस्य मध्यस्य महात्मनः वा सर्वस्य विनाशः नियतः (अस्ति)।
व्याख्या इसके बाद सारथी ने उन सिद्धार्थ से कहा-यह (मृत्यु) सभी प्रजाओं का अन्त करने वाली है। संसार में अधम, मध्यम या उत्तम सभी मनुष्यों की मृत्यु निश्चित है। तात्पर्य यह है कि इस संसार में जन्म लेने वाले सभी व्यक्तियों की मृत्यु सुनिश्चित है, चाहे जन्म लेने वाला व्यक्ति उत्कृष्ट हो या निकृष्ट।
(12)
इति तस्य विपश्यतो यथावज्जगतोव्याधिजराविपत्तिदोषान्।
बलयौवनजीवितप्रवृत्तौ विजगामात्मगतो मदः क्षणेन ॥
शब्दार्थ इति = इस प्रकार। तस्य = उसका (सिद्धार्थ का)। विपश्यतः = विशेष रूप से देखते या समझते हुए। यथावत् = सही ढंग से। जगतः = संसार के व्याधिजराविपत्तिदोषान्= बीमारी, बुढ़ापा, मृत्युरूप दोषों को। बलयौवनजीवितप्रवृत्तौ = बल, यौवन और जीवन की प्रवृत्ति के सम्बन्ध में। विजगाम = लुप्त हो गया। आत्मगतः = अपने अन्दर स्थित। मदः = मद, अहंकार, उल्लास। क्षणेन = क्षण भर में
प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सिद्धार्थ के मन में विरक्ति के उत्पन्न होने का वर्णन किया गया है।
अन्वय इति जगतः व्याधिजराविपत्तिदोषान् यथावत् विपश्यतः तस्य बलयौवनजीवितप्रवृत्तौ आत्मगतः मदः क्षणेन विजगाम।
व्याख्या इस प्रकार संसार के रोग, वृद्धावस्था, मृत्युरूप दोषों को सही ढंग से विशेष रूप से समझते हुए उसका (सिद्धार्थ का) शक्ति, यौवन और जीवन की प्रवृत्ति के सम्बन्ध में अपने अन्दर स्थित अहंकार क्षणभर में लुप्त हो गया। तात्पर्य यह है कि सिद्धार्थ उसी क्षण यह भूल गये कि वे राजकुमार हैं। उन्हें यह अनुभव हो गया कि वे भी एक सामान्य मनुष्य हैं।
(13)
पुरुषैरपरैरदृश्यमानः पुरुषश्चोपससर्प भिक्षुवेषः ।।
नरदेवसुतस्तमभ्यपृच्छद् वद कोऽसीति शशंस सोऽथ तस्मै ॥
शब्दार्थ पुरुषैः अपरैः = दूसरे मनुष्यों के द्वारा। अदृश्यमानः = न दिखाई पड़ने वाला। पुरुषः = मनुष्य। च= और। उपससर्प = पास आया। भिक्षुवेषः = भिक्षुक वेष वाला। नरदेवसु ..= राजकुमार (सिद्धार्थ) ने। तम् = उससे। अभ्यपृच्छत् = पूछा। वद = बताओ। कोऽसीति (कः + असि + इति) = कौन हो, यहा शशंस = कहा। सोऽथ (सः + अथ) = इसके बाद उसने। तस्मै = उससे (सिद्धार्थ से)।
प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में एक दिव्य पुरुष को देखकर सिद्धार्थ उससे उसके विषय में पूछते हैं।
अन्वय अपरैः पुरुषैः अदृश्यमानः भिक्षुवेषः पुरुषः च (एनम्) उपससर्प। नरदेवसुतः तम् अभ्यपृच्छत्-(त्वं) कः असि? इति वद। अथ सः तस्मै शशंस।।
व्याख्या दूसरे लोगों से न देखा गया और भिक्षु का वेश धारण करने वाला कोई पुरुष उसके (सिद्धार्थ के) पास आया। राजकुमार सिद्धार्थ ने उससे पूछा-तुम कौन हो? यह बताओ। इसके बाद उसने उनसे कहा। तात्पर्य यह है कि सिद्धार्थ के मन में जब अहंकार दूर हो जाता है तभी दिव्य पुरुष उनको दिखाई पड़ता है, जिसे उनका सारथी नहीं देख पाता।
(14)
नृपपुङ्गव! जन्ममृत्युभीतः, श्रमणः प्रव्रजितोऽस्मि मोक्षहेतोः।
जगति क्षयधर्मके मुमुक्षुर्मुगयेऽहं शिवमक्षयं पदं तत् ॥
शब्दार्थ नृपपुङ्गव = राजाओं में श्रेष्ठ। जन्ममृत्युभीतः = जन्म और मृत्यु से डरा हुआ। श्रमणः = साधु या संन्यासी। प्रव्रजितः अस्मि = सब कुछ छोड़कर घर से निकला हुआ अर्थात् संन्यासी हूँ। मोक्षहेतोः = मोक्ष अर्थात् मुक्ति के लिए। जगति = संसार से। क्षयधर्मके = नष्ट होना ही जिसका धर्म (स्वभाव) है; अर्थात् नश्वर। मुमुक्षुः = मोक्ष की इच्छा वाला। मृगये= ढूंढ़ रहा हूँ। शिवम् अक्षयं पदम् = विनाशरहित मंगलमय स्थान को।
प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में संन्यासी अपने परिचय और लक्ष्य के विषय में सिद्धार्थ से कह रहा है।
अन्वय नृपपुङ्गव! जन्ममृत्युभीत: (अहं) मोक्षहेतोः श्रमणः प्रव्रजित: अस्मि। क्षयधर्मके जगति मुमुक्षुः अहं तत् अक्षयं शिवं पदं मृगये।
व्याख्या हे राजाओं में श्रेष्ठ! जन्म और मृत्यु के दु:ख से डरा हुआ मैं मोक्ष के लिए संन्यासी होकर घर से निकल पड़ा हूँ। विनाशशील अर्थात् नश्वर संसार में मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा करने वाला मैं उस अविनाशी मंगलमय पद की खोज कर रहा हूँ।
(15)
गगनं खगवद् गते च तस्मिन्, नृवरः सञ्जहृषे विसिपिये च।
उपलभ्य ततश्च धर्मसञ्ज्ञामभिनिर्याणविधौ मतिं चकार ॥
शब्दार्थ गगनं = आकाश में। खगवत् = पक्षी की तरह गते = जाने पर। च = और। तस्मिन् = उस (भिक्षु) के नृवरः = मनुष्यों में श्रेष्ठ, सिद्धार्थ। सञ्जहृषे = हर्षित हुआ। विसिष्मिये = विस्मित हुआ; उपलभ्य = प्राप्त करके धर्मसञ्ज्ञाम् = धर्म के ज्ञान को। अभिनिर्याणविधौ = अभिनिष्क्रमण में। मतिं चकार = विचार किया।
प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सिद्धार्थ के भी संन्यास-ग्रहण करने के विषय में विचार करने के बारे में बताया गया है।
अन्वय तस्मिन् खगवत् गगनं गते नृवरः सञ्जहषे विसिष्मिये च। ततः धर्मसंज्ञां च उपलभ्य अभिनिर्याणविधौ मतिं चकार।
व्याख्या उस (भिक्षु) के पक्षी के समान आकाश में चले जाने पर अर्थात् उड़ जाने पर मनुष्यों में श्रेष्ठ सिद्धार्थ प्रसन्न हुए और आश्चर्यचकित हुए तथा उससे धर्म का बोध प्राप्त करके अभिनिष्क्रमण करने का विचार किया। तात्पर्य यह है कि उस भिक्षु से सही ज्ञान प्राप्त हो जाने के कारण सिद्धार्थ अत्यधिक हर्षित हुए और घर त्याग कर संन्यास-ग्रहण करने का संकल्प कर लिया।
सूक्तिपरक वाक्यांशों की व्याख्या
(1)
नाशः स्मृतीनां रिपुरिन्द्रियाणामेषा जरा नाम ययैष भग्नः।
एषा जरा नाम ययैष भग्नः। [2010, 14]
सन्दर्भ यह सूक्तिपरक पंक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘सिद्धार्थस्य निर्वेदः’ नामक पाठ से अवतरित है।
[संकेत इस पाठ की शेष सभी सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]
प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में वृद्धावस्था के दोषों पर प्रकाश डाला गया है।
अर्थ यह स्मृतियों को नष्ट करने वाला इन्द्रियों का शत्रु वृद्धावस्था ९, जिससे यह व्यक्ति टूट गया है।
व्याख्या वृद्धावस्था में व्यक्ति की स्मरण-शक्ति क्षीण हो जाती है और ज्यों-ज्यों यह अवस्था बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों वह और भी अधिक क्षीण होती जाती है। इसके अतिरिक्त वृद्धावस्था में व्यक्ति की ज्ञानेन्द्रियाँ भी शिथिल हो जाती हैं और उनकी कार्य करने की शक्ति या तो कम हो जाती है अथवा समाप्त हो जाती है। यही कारण है कि वृद्धावस्था में व्यक्ति कम सुनने लगता है, उसे कम दिखाई देने लगता है और उसकी सोचने की शक्ति भी कम हो जाती है। इसलिए बुढ़ापे को स्मृतियों (याददाश्त) को नष्ट करने वाला तथा इन्द्रियों का शत्रु कहा गया है, जो कि उचित है।
(2) शक्रोऽपि येनैष कृतोऽस्वतन्त्रः। [2006]
प्रसंग प्रत्येक व्यक्ति कभी-न-कभी बीमार अवश्य होता है, इस सूक्ति में इसी सत्य का उद्घाटन किया गया है।
अर्थ इन्द्र भी इस (रोग) के द्वारा स्वतन्त्र नहीं किये गये; अर्थात् उन्हें भी इस रोग ने नहीं छोड़ा।
व्याख्या सिद्धार्थ का सारथी उन्हें रोग के विषय में बता रहा है कि रोग एक ऐसी व्याधि है, जिससे कोई भी प्राणी बच नहीं पाता है। अपने सम्पूर्ण जीवन में प्रत्येक प्राणी कभी-न-कभी बीमार अवश्य पड़ता है। मनुष्यों की तो बात ही क्या, इस रोग ने तो इन्द्र को भी नहीं छोड़ा था। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि बढ़ा हुआ रोग जब व्यक्ति को पूर्णरूपेण असमर्थ बना देता है तब इन्द्र भी चाहने पर उसकी रक्षा नहीं कर सकते। तात्पर्य यह है कि रोग के द्वारा पूरी तरह से पराधीन किया गया मनुष्य इन्द्र द्वारा भी स्वाधीन नहीं किया जा सकता।
(3) सर्वस्य लोके नियतो विनाशः।। [2006, 08, 09, 10, 11, 13]
प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति के माध्यम से कवि संसार के शाश्वत नियमों को स्पष्ट कर रहा है।
अर्थ संसार में सबका विनाश निश्चित है।
व्याख्या संसार में जो भी जड़-चेतन पदार्थ हैं, उनमें से कोई भी चिरस्थायी नहीं है। संसार में जो भी वस्तु उत्पन्न होती है, वह अवश्य ही नष्ट होती है। विनाश से कोई भी वस्तु बच नहीं सकती, चाहे वह प्राणियों का शरीर हो या वृक्ष, पर्वत आदि अन्य कुछ। इस संसार में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो उत्पन्न तो हुआ हो लेकिन उसका विनाश न हुआ हो। श्रीमद्भगवद्गीता में भी कहा गया है “जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः धुवं जन्ममृतस्य च।”
श्लोक का संस्कृत-अर्थ
(1) ततः कुमारो ……………………………………………… निष्कम्प-निविष्ट-दृष्टिः ॥ (श्लोक 1) :
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महाकविः अश्वघोषः कथयति यत् वृद्धावस्थापीडितं भिन्नाकृति: पुरुषं दृष्ट्वा आगतास्थः कुमार सिद्धार्थः अपलकदृष्ट्या पश्यन् तं वृद्धं स्वसारथिम् अब्रवीत्।।
(2) क एष भोः ………………………………………………प्रकृतिर्यदृच्छा ॥ (श्लोक 2)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके सिद्धार्थः अवदत्-भोः सूत! मत्समक्षम् उपस्थितः श्वेतकेश-युक्तः, यष्टिविषक्तहस्तः, दीर्घभूसंवृताक्षः, शिथिलाङ्गः पुरुषः कः अस्ति? कथमस्य एषा दशा उत्पन्ना? अस्य एषा दशा स्वाभाविकी अथवा संयोगेन सजातः।
(3) रूपस्य हर्जी ……………………………………………… ययैष भग्नः ॥ (श्लोक 3) [2006]
संस्कृतार्थः सिद्धार्थस्य वचनं श्रुत्वा सारथिः प्रत्यवदत्-कुमार! अस्य पुरुषस्य वृद्धावस्था वर्तते। एषां वृद्धावस्था रूपस्य हरणकर्जी, बलस्य विनाशिनी, शोकस्य कारणं, कामानां निधनं, स्मृतीनां नाशः, इन्द्रियाणां शत्रुः चास्ति। वृद्धावस्था सर्वेषां कष्टानां कारणम् अस्ति।
(4) ततोऽब्रवीत् ……………………………………………… कृतोऽस्वतन्त्रः॥ (श्लोक 8)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महाकविः अश्वघोषः कथयति यत् कुमार सिद्धार्थस्य वचनं श्रुत्वा सारथिः अब्रवीत्-हे सौम्य! अस्य पुरुषस्य धातवः क्षीणः विकृतः अभवन्। रोगस्य वर्धनात् अयं पुरुषः असमर्थः अभवत्। अतएव इन्द्रः अपि तं रक्षितुं न समर्थः।।
(5) ततः प्रणेता ……………………………………………… नियतो विनाशः ॥ (श्लोक 11) [2007, 08]
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके सारथिः कथयति-भो राजकुमार! कालः सर्वेषाम् उत्पन्नानाम् अन्तकर्ता अस्ति। अस्मिन् लोके उत्तम-मध्यम-हीन जनानां सर्वेषां विनाः नियतो वर्तते। य: उत्पन्न: भवति सः अवश्यमेव विनश्यति। न कः अपि सर्वदा एव तिष्ठति।।
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